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जह फणिराओ सोहइ फणमणिमाणिक्ककिरणविप्फुरिओ।
तह विमलदसणधसे जिणभत्ती पयवणे जीवो ॥३१५॥ फन में लगे हुए मणिमाणिक्य की विस्फुरित किरणों से जैसे नागेन्द्र (धरणेन्द्र) शोभा पाता है वैसे ही जिनभक्ति और निर्मल सम्यग्दर्शन का धारक जीव जिनशासन में शोभा पाता है।
जह तारायणसहियं ससहरबिंबं खमंडले मिवले ।
भाविय तववयविमलं जिणलिंगं दंसणविसुद्धं ॥३१६॥ जैसे तारों के साथ चन्द्रमा के बिम्ब से निर्मल आकाश शोभित होता है वैसे ही तपस्याओं और व्रतों से निर्मल हुए मुनिगण विशुद्ध सम्यग्दर्शन से शोभित होते हैं।
इय णाउं गुणदोसं दंसणरयणं धरेह भावेण । ......
सारं गुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥३१७॥ हे मुने, इस प्रकार गुण और दोष को समझकर तू सम्यग्दर्शन रूपी रत्न को भावपूर्वक धारण कर। यह गुण रूपी रत्नों का सार है और मोक्ष की पहली सीढ़ी है।
कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य ।
दसणणाणुवओगो णिद्दिट्ठो जिणवरिदेहिं ॥ ३१८ ॥ यह जीव कर्ता है, भोक्ता है, अमूर्तिक है, अनादि है, अनन्त है और देखने जानने के रूप में उपयोग स्वरूप है। इसका यह रूप जिनेन्द्र भगवान् ने निरूपित किया है।
दसणणाणावरणं मोहणियं अंतराइयं कम्मं ।
णिट्ठवइ भवियजीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो ॥ ३१६ ।। जिनभावना से भली प्रकार युक्त भव्य जीव दर्शनावरणी, ज्ञानावरणी, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों का नाश करता है।
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