________________
जीवाणमभयदाणं देहि मुणी पाणिभूयसत्ताणं ।
कल्लाणसुहणिमित्तं परंपरा तिविहसुद्धी ॥ ३०६ ॥
मुने, तू जीवों और प्राणीभूत सत्त्वों को क्रमिक कल्याण और सुख के लिए मनवचनकाय की शुद्धतापूर्वक अभयदान दे।
असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी । सत्तट्टी अण्णावी वेणईया होंति बत्तीसा ॥ ३०७ ॥
मिथ्यात्व के तहत क्रियावादियों के एक सौ अस्सी, अक्रियावादियों के चौरासी, अज्ञानियों के सड़सठ और विनयवादियों के बत्तीस भेद हैं।
BUT
ण मुयइ पयडि अभव्वो सुठु वि आयण्णिऊण जिणधम्मं । गुडदुद्धं पि पिता पणया णिव्विसा होंति ॥ ३०८ ॥ जिनधर्म को भली प्रकार सुनकर भी अभव्य जीव अपनी प्रकृति को नहीं छोड़ते । सच है कि गुड़ पड़ा दूध पीते हुए भी साँप विषरहित नहीं होते ।
मिच्छत्तछण्णदिट्ठी दुद्धीए दुम्मएहिं दोसेहिं ।
धम्मं जिणपण्णत्तं अभव्वजीवो ण रोचेदि ॥ ३०६ ॥ बुरे मतों की दोषजन्य दुर्बुद्धि से और मिथ्यात्व से आच्छादित दृष्टिवाले अभव्य जीव को जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित धर्म अच्छा नहीं लगता ।
82
कुच्छियधम्मम्मि रओ कुच्छियपासंडिभत्तिसंजुत्तों । कुच्छियतवं कुणंतो कुच्छियगइभायणो होदि ॥ ३१० ॥ मिथ्या धर्म तथा मिथ्या पाखण्डियों की भक्ति में लगा हुआ और मिथ्या तप करता हुआ व्यक्ति मिथ्या गति यानी दुर्गति का ही शिकार बनता है।