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किं पुण गच्छदि मोहं णरसुरसुक्खाण अप्पसाराणं ।
जाणंतो पस्संतो चिंतंतो मोक्ख मुणिधवलो ॥३०१ ॥ तो फिर मोक्ष को जानता, देखता और उसका चिन्तवन करता श्रेष्ठ मुनि भला मनुष्य और देवताओं के स्वरूप सारवाले सुखों के मोह में क्यों पड़ेगा?
उत्थरइ जा ण जरओ रोयग्गी जा ण डहइ देहउडिं।
इन्दियबलं ण वियलइ दाव तुमं कुणहि अप्पहियं ॥३०२ ॥ हे मुने, जब तक बुढ़ापे का आक्रमण नहीं होता, जब तक रोगों की अग्नि तेरी देह रूपी कुटिया को भस्म नहीं करती, जब तक तेरी इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती तब तक आत्महित कर ले।
छज्जीव छडायदणं णिच्चं मणवयणकायजोएहिं । .. कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासतं ॥३०३ ।। हे मुने, षट्काय जीवों पर दया करने का कार्य तथा छह अनायतनों को छोड़ने का कार्य मनवचनकाय से कर और अद्भुत आत्मस्वरूप का चिन्तवन कर।
दसविहपाणाहारो अणंतभवसायरे भसंतेण।
भोयसुहकारणहँ कदो य तिविहेण सयलजीवाणं ॥ ३०४ ॥ हे मुने, तू ने अनन्त संसार सागर में परिभ्रमण करते हुए अपने सुख के लिए मनवचनकाय से समस्त जीवों के दस प्रकार के प्राणों का आहार किया है।
पाणिवहेहि महाजस चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि ।
उप्पजंत मरंतो पत्तो सि णिरंतरं दुक्खं ॥ ३०५ ॥ हे महायश मुने, जीवों के वध के कारण तू ने चौरासी लाख योनियों में जन्म लेते हुए और मृत्यु को प्राप्त होते हुए निरन्तर दुःख ही पाया है।
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