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जह बीयम्मि य दड्ढे ण विरोहदि अकुरो य महिवीढे ।
तहू कम्मबीयदड्ढे भवंकुरो भावसवणाणं ॥ २६६ ॥ बीज जल जाये तो फिर उससे पृथ्वी पर अंकुर नहीं फूटता। इसी प्रकार भावमुनियों के जले हुए कर्मबीज से संसार (जन्ममरण) रूपी अंकुर नहीं फूटता।
भावसवणो वि पावइ सुक्खाइंदुहाई दव्वसवणो य ।
इय णाउं गुणदोसे भावेण य संजुदो होदि ॥२६७ ॥ भावमुनि को सुख और द्रव्यमुनि को दुःख मिलता है। इस प्रकार गुणदोष देखकर भाव से ही संयुक्त होना चाहिए।
तित्थयरगणहराइं अब्भुदयपरंपराइं सोक्खाई।
पावंति भावसहिया संखेवि जिणेहिं वजरियं ॥ २६८॥ जिनेन्द्र भगवान् ने बहुत संक्षेप में संकेत किया है कि भावसहित मुनि अभ्युदय परम्परा से तीर्थंकर, गणधर आदि पदों के सुखों को प्राप्त करते हैं।
ते धण्णा ताण णमो दसणवरणाणचरणसुद्धाणं ।
भावसहियाण णिच्चं तिविहेण पणट्ठमायाणं ।। २६६ ॥ जो मुनि सम्यग्दर्शन, श्रेष्ठ ज्ञान और निर्दोष चारित्र से विशुद्ध हैं, भाव सहित हैं और जिनके कपट भाव पूर्णतः नष्ट हो गए हैं वे धन्य हैं। मैं मनवचनकाय से सदैव उन्हें नमन करता हूँ।
इड्ढिमतुलं विउब्विय किण्णरकिंपुरिसअमरखयरेहिं ।
तेहिं विण जादि मोहं जिणभावणभाविओ धीरो ॥३०॥ सम्यग्दर्शन से सम्पन्न जीव किन्नरों, किंपुरुष देवों, कल्पवासी देवों और विद्याधरों द्वारा विक्रिया रूप से फैलाई गई अतुल ऋद्धियों के भी मोह में नहीं पड़ता।
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