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तविवरीओ बंधइ सुहकम्मं भावसुद्धिमावण्णो।
दुविहपयारं बंधइ संखेपेणेव वज्जरियं ॥२८८॥ पूर्वोक्त के विपरीत, भावों से विशुद्ध जीव को शुभ कर्म का बन्ध होता है। संक्षेप में ये दो प्रकार के जीव क्रमशः अशुभ और शुभ कर्म को बाँधते हैं।
णाणावरणादीहिं य अट्ठहिं कम्मेहिं वेढिओ य अहं ।
डहिऊण इण्हि पयडमि अणंतणाणाइगुणचित्तां ॥२८६ ॥ हे मुनिवर, तू यह भावना कर कि मैं ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से घिरा हुआ हूँ। इसलिए इनको भस्म करके अनन्त ज्ञान आदि गुणों से सम्पन्न अपने निज स्वरूप की चेतना को प्रकट करूँ।
सीलसहस्सट्ठारस चउरासीगुणगणाण लक्खाई।
भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलावणे किं बहुणा ॥२६०॥ शील के अठारह हजार भेद हैं और उत्तर गुणों की संख्या चौरासी लाख है। हे मुने, तू इन सबका निरन्तर भावन कर और निरर्थक वचनों में मत उलझ।
झायहि धम्म सुक्कं अट्ट रउदं च झाण मुत्तूण ।
रुघट्ट झाइयाइं इमेण जीवेण चिरकालं ॥२६१॥ हे मुने, आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म्य और शुक्ल ध्यान कर। आर्त और रौद्र ध्यान तो तेरा जीव बहुत समय तक कर चुका है।
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