________________
दिक्खाकालाईयं भावहि अवियारदसणविसुद्धो।
उतमबोहिणिमित्तं असारसाराणि मुणिदूण ॥२८०॥ हे मुने, सार तथा असार के फर्क को समझना और उत्तम बोधि (सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र) की प्राप्ति के लिए निर्विकार, निर्मल सम्यग्दर्शन के साथ अपने दीक्षाकाल को स्मरण में लाते रहना।
सेवहि चउविहलिंगं अब्भंदरलिंगसुद्धिमावण्णो ।
बाहिरलिंगमकजं होदि फुडं भावरहियाणं ॥२८१॥ हे मुने, आभ्यन्तर मुनित्व (भावमुनित्व) की विशुद्धता को प्राप्त करने के बाद ही चार प्रकार के बाह्य मुनित्व (द्रव्यमुनित्व) पर ध्यान देना, क्योंकि आभ्यन्तर भाव के बिना बाह्य मुनित्व से कुछ भी सिद्ध नहीं होगा।
आहारभयपरिग्गहमेहुणसण्णाहि मोहिओ सि तुमं ।
भमिदो संसारवरणे अणादिकालं अणप्पवसो ॥२८२।। हे जीव-आहार, भय, परिग्रह और मैथुन इन चार संज्ञाओं से मोहित हुए तुमने पराधीन होकर अनादि काल से संसार के वन में परिभ्रमण किया है।
बाहिरसयणत्तावणतरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि ।
पालहि भावविसुद्धो पूयालाहं ण ईहतो ॥२८३॥ हे मुने, शीतकाल में बाहर सोना, ग्रीष्मकाल में (पर्वत के शिखर पर सूर्य सम्मुख)
आतापन योग धारण करना और वर्षाकाल में पेड़ के नीचे योग धरना ये सब परवर्ती गुण हैं। पूर्ववर्ती और पहला गुण तो भाव की विशुद्धि ही है। तू सम्मान और लाभ की इच्छा के बगैर उसे ही अपने जीवन में उतारना।
76