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जं किंचिं कयं दोसं मणवयकाएहिं असुहभावेणं ।
तंगरहि गुरुसयासे गारव मायं च मोत्तूण ॥२७६॥ हे मुने, अशुभ भाव के कारण मनवचन काय से जो भी भूल तुझसे हुई हो उसे गर्व और माया त्यागकर अपने गुरु से कह।
दुजणवयणचडक्कं णिठुरकडुयं सहति सप्पुरिसा ।
कम्ममलणासणटुंभावेण य णिम्ममा सवणा ॥२७७|| सत् पुरुष (श्रेष्ठ मुनि/श्रावक) दुष्टों के निष्ठुर और कटु वचनों के प्रहार झेलते रहते हैं ताकि उनके कर्ममल का नाश हो सके। वस्तुतः मुनियों को कोई राग /ममत्व नहीं होता।
पावं खवदि असेसं खमाए पडिमंडिदो य मुणिपवरो ।
खेयरअमरणराणं पसंसणीओ धुवं होदि ॥२७८॥ जो क्षमामण्डित श्रेष्ठ मुनि अपने तमाम पापों का क्षय करने में समर्थ होते हैं उनकी प्रशंसा मनुष्य ही नहीं विद्याधर देव भी करते हैं।
इय णादूण खमागुण खमेहि तिविहेण सयल जीवाणं ।
चिरसंचियकोहसिहि वरखमसलिलेण सिचेह ॥२७॥ हे क्षमागुण मुने, मैंने जो पूर्व में कहा है उस पर ध्यान देना और संसार के सभी जीवों को मन वचन काय से क्षमा करना और मुद्दत से संजोई गई अपनी क्रोधाग्नि को क्षमा के श्रेष्ठ जल से सींच डालना।
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