________________
सच्चितभतपाणं गिद्धी दप्पेणडधी पभुतूण ।
पतो सि तिव्वदुक्खं अणाइकालेण तं चिंत ॥२७२॥ हे जीव, तू ने दुर्बुद्धि होकर अतिशय लालसा एवं गर्व के कारण ऐसा आहार किया
और ऐसा जल पिया जिसमें जीव थे। फलस्वरूप अनादिकाल से तुझे तीव्र दुःख मिला। अब तो थोड़ा सोच विचार कर।
कंदं मूलं बीयं पुप्फ पतादि किंचि सच्चितं । ... असिऊण माणगव्वं भमिदो सि अणतसंसारे ॥२७३॥ जमीकन्द आदि कन्द, अदरक, मूली, गाजर आदि मूल, चना आदि बीज, नागरवेल आदि पत्र जैसी जो भी सचित्त (जीवयुक्त) वस्तु थी उसे तूने मान और गर्व के साथ भक्षण किया। इस कारण हे जीव, तुझे अनन्त संसार में परिभ्रमण करना पड़ा। यानी बार बार तेरा जन्ममरण हुआ।
विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण ।
- अविणयणरा सुविहियं तो ततो मुर्ति न पावंति ॥२७४॥ हे मुने, अविनीत को विहित मोक्ष नहीं मिलता। इसलिए मन, वचन, काय, के योग से पाँच प्रकार के विनय का पालन कर।
णियसत्तीए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि ।
तं कुण जिणभत्तिपरं विज्जावच्चं दसवियप्पं ॥२७५।। हे महायश मुने, जिनभक्ति में उत्कृष्ट और दस भेदों वाले वैयावृत्य को तू सदैव अपनी शक्ति के अनुसार और भक्तिरागपूर्वक कर।