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णवविहबंभं पयडहि अब्बंभं दसविहं पमोत्तूण | मेहुणसण्णासत्तो भमिदो सि भवण्णवे भीमे ॥ २६८ ॥
जीव, दस प्रकार के अब्रह्म को छोड़कर नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य को जीवन में उतार । अभी तक तो कम सेवन की अभिलाषा में अपनी आसक्ति के कारण तू भयानक संसार सागर में ही परिभ्रमण करता रहा ।
भावसहिदो य मुणिणो पावदि आराहणाचउक्कं च । भावरहिदो य मुणिवर भमदि चिरं दीहसंसारे ॥ २६६ ॥
मुनिवर, भाव से युक्त मुनि आराधना चतुष्क (दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप) को प्राप्त करता है। इसके विपरीत भाव से रहित मुनि दीर्घ काल तक इस विराट संसार में परिभ्रमण करता है। यानी बार बार जन्ममरण से गुज़रता है ।
पावंति भावसवणा कल्लाणपरंपराई सोक्खाई । दुखाइं दव्वसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए ॥ २७०॥
Tata कल्याण एवं परम्परा से युक्त सुखों की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत द्रव्यमुनि को मनुष्य, तिर्यंच और कुदेव योनि में जन्म लेकर दुःख उठाने पड़ते हैं ।
छायालदोसदूसियमसणं गसिउं असुद्धभावेण ।
पतो सि महावसणं तिरियगईए अणप्पवसो ॥ २७१॥
हे मुने, तू छियालीस दोषों से दूषित आहार करता रहा और वह भी अशुद्ध भाव से करता रहा । इसलिए तुझे तिर्यंच गति में जन्म लेकर पराधीनतापूर्वक महान कष्ट झेलने पड़े।
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