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भंजसु इन्दियसेणं भंजसु मणमक्कडं पयत्तेरण।
मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु ॥२६०॥ हे मुने, तू इन्द्रियों की सेना और मन रूपी वानर का प्रयत्नपूर्वक भंजन कर, बाह्य व्रतों के लोकलुभावन वेश को धारण मत कर।
णवणोकसायवग्गं मिच्छतं चयसु भावसुद्धीए ।
चेइयपवयणगुरुणं करेहि भतिं जिणाणाए ॥२६१॥ हे मुने, तू नोकषाय वर्ग के सभी नौ ईषत् कषायों को तथा मिथ्यात्व को भावशुद्धि द्वारा छोड़ और जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा से चैत्य, प्रवचन तथा गुरु की भक्ति कर।
तित्थयरभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म।
भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्धभावेण सुयणाणं ॥२६२॥ हे मुने, जिस अतुलित श्रुत ज्ञान को तीर्थंकर भगवान् ने कहा और जिसे गणधर देवों ने अच्छी तरह से निबद्ध किया अर्थात् जिसकी शास्त्र रूप रचना की तू उसका प्रतिदिन विशुद्ध भाव से भावन कर।
पीऊण णाणसलिलं णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का ।
होति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा ॥२६३।। इस प्रकार ज्ञान का जल पीकर व्यक्ति उस प्यास की जलन और ताप से मुक्त हो जाता है जिसे मथना सम्भव नहीं होता। वह व्यक्ति तीन लोक का मुकुट मणि सिद्ध बनता है और मोक्ष में निवास करता है।
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