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पंचविहचेलचायं खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू ।
भावं भावियपुव्वं जिणलिंग णिम्मलं सुद्धं ॥२५१॥ शुद्ध आत्म स्वरूप का भावन, पाँच प्रकार के वस्त्रों का यानी सभी वस्त्रों का त्याग, भूमि पर शयन, दो प्रकार का संयम (इन्द्रिय और मन को वश में रखना तथा षटकाय जीवों की रक्षा करना) और भिक्षा भोजन ये निर्मल शुद्ध मुनि के लक्षण हैं।
जह रयणाणं पवरं वजं जह तरुगणाण गोसीरं ।
तह धम्माणं पवरं जिणधम्म भाविभवमहणं ॥२५२॥ जैसे रत्नों में श्रेष्ठ रत्न हीरा है,पेड़ों में श्रेष्ठ पेड़ चन्दन है वैसे ही धर्मों में श्रेष्ठ धर्म जिनधर्म है। वह अगले संसार का, अगले जन्म का विचार करता है।
पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं ।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ॥२५३॥ जिनेन्द्र भगवान् का कथन है कि जिन शासन में पूजा आदि व्रत रखना तो पुण्य है और मोह तथा क्षोभ से रहित आत्मा का शुद्ध भाव होना धर्म है।
सद्दहृदि य पतेदि य रोचेदि य तह पुणो वि फासेदि ।
पुण्णं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥२५४॥ जो व्यक्ति पुण्य पर श्रद्धा रखते हैं, उसकी प्रतीति करते हैं, उसमें रुचि लेते हैं और उसका स्पर्श करते हैं उनका वह पुण्य भोग का निमित्त है। यानी उससे उन्हें भोग का केन्द्र स्वर्ग तो मिल सकता है। लेकिन वह पुण्य उनके कर्मक्षय का निमित्त नहीं बन सकता। यानी उन्हें मोक्ष नहीं दिला सकता।
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