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सुद्धं सुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं ।
इदि जिणवरेहिं भणिद जं- सेयं तं समायरह ॥ २४७ ॥
और शुद्ध ? जिनेन्द्र भगवान् का कथन है कि शुद्ध तो अपनी शुद्ध स्वभावी आत्मा ही है। वह दूर नहीं, अपने ही भीतर है। यह समझकर जो कल्याणकारक हो उसे अंगीकार करना चाहिए ।
पयलियमाणकसाओ पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो । पावइ तिहुवणसारं बोही जिणसासणे जीवो ॥ २४८ ॥ मान कषाय और मिथ्यात्व का मोह नष्ट करके जो जीव समचित्त हो जाता है वह जिनशासन में तीन लोक के सार रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग को प्राप्त करता है ।
विसयविरतो समणो छद्दसवरकारणाई भाऊण । तित्थयरणामकम्मं बंधइ अइरेण कालेन ॥ २४६ ॥
इन्द्रिय विषयों से विरक्त हृदय वाले मुनि को सोलहकारण भावनाएं भाने से थोड़े ही समय में तीर्थंकर के नाम और प्रकृति का बन्ध हो जाता है । अर्थात् वह तीर्थंकरत्व प्राप्त कर लेता है।
बारसविहतवयरणं तेरसकिरियाउ भाव तिविहेण ।
धरहि मणमत्तदुरियं णाणंकुसएण मुणिपवर ॥ २५० ॥
मुनिश्रेष्ठ, बारह प्रकार के तपों के आचरण से, मन वचन काय से तेरह प्रकार की क्रियाएं करने से और ज्ञान के अंकुश से मन रूपी मदमस्त हाथी को वश में रखा जा सकता है।
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