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दस दस दो सुपरीसह सहहि मुणी सयलकाल काएण।
सुत्तेण अप्पमत्तो संजमघादं पमोत्तूण ॥२६४॥ हे मुने, तू बाईस परिषहों को जिन वचन में कही गई रीति के अनुसार एवं प्रमाद रहित होकर सब समय अपने शरीर से सहन कर और अपने संयम को बनाए रख।
जह पत्थरोण भिज्जइ परिट्ठिओ दीहकालमुदएण ।
तह साहू विण भिज्जइ उवसग्गपरीसहेहिंतो ॥२६॥ जिस प्रकार बहुत समय तक जल में रहने वाले पत्थर को भी जल भेद नहीं पाता उसी प्रकार मुनि को भी उपसर्ग और परिषह भेद नहीं पाते।
भावहि अणुवेक्खाओ अबरे पणवीसभावणा भावि ।
भावरहिएण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं ॥२६६॥ हे मुने, तू अनित्य, अशरण आदि बारह अनुप्रेक्षाओं का और पाँच महाव्रतों की जो पच्चीस भावनाएं हैं उनका भावन कर। भावरहित बाह्य मुनित्व (द्रव्य मुनित्व) के बल पर तो कुछ भी सिद्ध होने वाला नहीं है।
सव्वविरओ वि भावहि णव य पयत्थाई सत्त तच्चाई ।
जीवसमासाइं मुणी चउदसगुणठाणणामाई ॥२६७।। हे मुने, अच्छी बात है कि तू सभी परिग्रहों आदि से विरक्त हो गया है। तो भी (भाव शुद्धि के लिए) नौ पदार्थों, सात तत्त्वों, चौदह जीव समासों और चौदह गुणस्थानों का भावन कर।