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केवलिजिणपण्णत्तं एयादसअंग सयल सुयणाणं ।
पढिओ अभव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ॥२२२॥ अभव्यसेन नाम के मुनि ने तो केवली भगवान् द्वारा प्रतिपादित पूर्ण श्रुतज्ञान के ग्यारह अंगों का अध्ययन किया था। फिर भी उनमें भाव मुनित्व की चेतना नहीं जागी।
तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य ।
णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जादो ॥२२३॥ सभी जानते हैं कि शिवभूति नाम के मुनि तो सिर्फ तुष, माष जैसे शब्दों को ही रटने तक सीमित थे। शास्त्रों का अध्ययन तो दूर की बात है। लेकिन भावों की विशुद्धता ने उन्हें महानुभाव बनाया और केवल ज्ञान दिया।
भावेण होदि णग्गो बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण ।
कम्मपयडीण णियरंणासइ भावेण दव्वेण ॥२२४॥ असल नग्नता तो भाव से होती है। केवल बाह्य नग्नता से कुछ नहीं होता। भावसहित बाह्य नग्नता ही कर्म प्रकृति के समूह का नाश कर पाती है।
णग्गत्तणं अकजं भावणरहियं जिणेहिं पण्णत्तं ।
इय णाऊण य णिच्दं भाविजहि अप्पयं धीर ॥२२५।। जिनेन्द्र भगवान् का कथन है किभावरहित नग्नता कार्यकारी नहीं होती। इसलिए हे धैर्यवान मुनि, इस कथन को समझते हुए तुम्हें निरन्तर आत्मा का ही भावन करना चाहिए।
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