________________
जो जीवो भावंतो जीवसहावं सुभावसंजुत्तो ।
सो जरमरणविणासं कुणदि फुडं लहइ णिव्वाणं ॥२३१॥ जो व्यक्ति शुद्ध स्वभाव से युक्त आत्मा के स्वभाव का भावन करता है वह बुढ़ापे
और मौत का विनाश करने में समर्थ होता है और उसे असन्दिग्ध रूप से निर्वाण की प्राप्ति होती है।
जीवो जिणपण्णत्तो णाणसहाओ य चेयणासहिओ।
सो जीवो णायव्वो कम्मक्खयकरणणिम्मित्तो ॥२३२॥ जिनेन्द्र भगवान् ने आत्मा को ज्ञान स्वभावी और चेतना सम्पन्न बताया है। कर्मक्षय की निमित्त ऐसी आत्मा को ज़रूर जानना चाहिए।
जेसिंजीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ ।
ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ॥२३३॥ जो व्यक्ति आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं, उसका अभाव नहीं मानते वे देह से विलग होकर वचन अगोचर (अनिर्वचनीय) सिद्ध होते हैं।
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं ।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठिसंठाणं ॥२३४॥ आत्मा रस, रूप, गन्ध, शब्द और गोचरता से परे है। चेतना गुण से सम्पन्न है। उसका कोई चिह्न और निर्धारित आकार-प्रकार नहीं है।