Book Title: Atthpahud
Author(s): Kundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalay

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Page 40
________________ जह फुल्लं गंधमयं भवदि हु खीरं स घियमयं चावि। तह दंसणं हि सम्मंणाणमय होइ रूवत्थं ॥ १२३ ॥ जिस प्रकार फूल में गन्ध और दूध में घी होता है उसी प्रकार दर्शन ज्ञानमय होता है। मुनि तथा उत्कृष्ट श्रावक, आर्यिका उसके बाह्य स्वरूप हैं। जिणबिंबणाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च। जं देइ दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा॥ १२४ ॥ जो (आचार्य) ज्ञानमय, संयम से शुद्ध और श्रेष्ठ वीतराग होता है तथा कर्मक्षय करने वाली शुद्ध शिक्षा दीक्षा देता है वह जिनबिम्ब है। तस्स य करह पणामं सव्वं पुजं च विणय वच्छल्लं । जस्स य दंसण णाणं अत्थि धुवं चेयणाभावो ॥ १२५ ॥ सम्यग्दर्शन, ज्ञान और आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए जिनबिम्ब को प्रणाम करना चाहिए, उसकी पूजा, विनय और वात्सल्य करना चाहिए। तववयगुणेहिं सुद्धो जाणदि पिच्छेद सुद्धसम्मत्तं । अरहन्तमुद्द एसा दायारी दिक्खसिक्खा य ॥ १२६ ॥ अरिहन्त की मुद्रा तप, व्रत तथा गुणों से शुद्ध होती है। वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के आधार पर यथार्थ को देखने, जानने में समर्थ होती है और शिक्षा दीक्षा देने वाली होती है। दढसंजममुद्दाए इन्दियमुद्दा कसायदढमुद्दा । मुद्दा इह णाणाए जिणमुद्दा एरिसा भणिया ॥ १२७॥ इन्द्रिय विषयों के प्रति दृढ़ संयम मुद्रा, कषायों के प्रति दृढ़ मुद्रा और ज्ञान मुद्रा (से युक्त मुनि) ही दरअसल जिनमुद्रा है। 39

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