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दियसंगट्ठियमसणं आहारिय मायभुत्तमण्णंते ।
छदिखरिसाण मज्झे जठरे वसिओसि जणणीए ॥२१० ॥ माँ के दाँतों से चबाए हुए, उन दाँतों में लगे हुए भोजन को, जो माँ के भोजन करने के बाद उदर में गया, ग्रहण करके तुझे माँ के पेट में रहना पड़ा। वहाँ वमन के अन्न और रुधिर मिले अपक्व मल के बीच तू रहा।
सिसुकाले य अण्णाणे असुईमज्झम्मि लोलिओ सि तुमं ।
असुई असिया बहुसो मुणिवर बालत्तपत्तेण ॥ २११ ॥ हे मुनिवर, शिशु की अज्ञान अवस्था में तू अपवित्रताओं में लेटा रहा। शिशुपने में बहुत बार अपवित्र वस्तुएं ही तेरे खाने में आईं।
मंसट्ठिसुक्कसोणियपित्तंतसवत्त कुणि मदुग्गंधं ।
खरिसवसापूय खिब्भिस भरियं चिंतेहि देहउडं ।। २१२ ॥ और हे शुद्ध बुद्ध ज्ञानमय जीव, जरा अपनी देह के घट के बारे में सोच । माँस, हाड़, वीर्य, रक्त, पित्त और आँतें हाल ही मरे हुए व्यक्ति की तरह दुर्गन्ध देती हैं और पूरा घट खरिस (रुधिर मिला अपक्व मल), वसा (मेद),पूय (.खराब .खून) और कल्मष (गन्दगी ) से भरा हुआ है।
भावविमुत्तो मुत्तो ण य मुत्तो बंधवाइमित्तेण ।
इय भाविदूण उज्झसुगंधं अब्भंतरं धीर ॥ २१३ ॥ जो व्यक्ति अपने राग द्वेष के भावों से मुक्त है वही वस्तुतः मुक्त है। कुटुम्ब और मित्र आदि से मुक्त होकर व्यक्ति मुक्त नहीं होता। इसलिए हे धीर मुनि, तुझे अपनी आभ्यन्तर वासनाओं से, राग द्वेष से मुक्त होना चाहिए।
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