Book Title: Atthpahud
Author(s): Kundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalay

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Page 59
________________ तेयाला तिण्णि सदा रज्जुणं लोयखेत्तपरिमाणं । मुत्तूणट्ठपदेसा जत्थ ण ढुरुढुल्लिओ जीवो ॥ २०६ ॥ यह लोक तीन सौ तैंतालीस रज्जु परिमाण क्षेत्र है। इसमें से आठ प्रदेशों (मेरू के नीचे गोस्तनाकार आठ प्रदेश) को छोड़कर ऐसा कोई प्रदेश नहीं रहा जिसमें जीव जनमा और मरा न हो। एक्केक्कंगुलिवाही छण्णवदी होति जाण मणुयाणं । अवसेसे य सरीरे रोया भण कित्तिया भणिदा ॥ २०७ ॥ मनुष्यों की एक एक उँगली में छियानवे छियानवे रोग होते हैं। तब कहिए पूरे शरीर में कितने रोग कहे जाएं? ते रोया वि य सयला सहिया ते परवसेण पुव्वभवे । एवं सहसि महाजस किं वा बहुएहि लविएहिं ॥ २०८ ॥ हे महान यशस्वी, वे तमाम रोग तूने पूर्व भवों में परवश रहते हुए भोगे हैं। अधिक कहने से क्या ? क्या इसी प्रकार फिर उन्हें भोगना चाहेगा? पित्तंतमुत्तफेफसकालिज्जयरुहिरखरिसकिमिजाले । उयरे वसिओसि चिरं णवदसमासेहिं पत्तेहिं । २०६ ॥ हे जीव, तुझे पित्त, आँत, मूत्र, फेफस (बिना मेद फूलने वाला रुधिर), कालिज (कलेजा), रुधिर, खरिस (अपक्व मलयुक्त रुधिर, श्लेष्म) और कृमिजाल से वेष्टित उदर में (गर्भ में) नौ-दस माह तक रहना पड़ा।

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