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अण्णे कुमरणमरणं अणेयजम्मंतराई मरिओ सि ।
भावहि सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव ! ॥ २०२ ॥ हे जीव, अनेक जन्मान्तरों में तू कुमरण की मौत मरा है। अब श्रेष्ठ मरणवाली ऐसी मौत की भावना कर जिससे जन्ममरण का चक्र ही नष्ट हो जाए ।
सो णत्थि दव्वसवणो परमाणुपमाणमेत्तओ णिलओ । जथ जाओ ओ तियलोयपमाणिओ सव्व ॥ २०३ ॥ तीन लोक के विस्तार में एक परमाणु बराबर भी ऐसा प्रदेश नहीं है जहाँ द्रव्य मुनि को जन्म मरण से न गुज़रना पड़ा हो ।
कालमणंतं जीवो जम्मजरामरणपीडिओ दुक्खं । जिणलिंगेण विपतो परंपराभावरहिएण ॥ २०४ ॥
द्रव्यलिंगी मुनि होने के बाद परम्परा से भी भावना में मुनित्व को उपलब्ध न करने के कारण जीव को अनन्त काल तक जन्म, जरा और मरण का दुःख उठाना पड़ा ।
पडिदेससमयपुग्गलआउगपरिणामणामकालद्वं ।
गहिउज्झियाइं बहुसो अनंतभवसायरे जीव ॥ २०५ ।।
जीव ने अनन्त भवसागर में लोकाकाश के सभी प्रदेशों, सभी समयों, सभी परिणामों, नामों और कालों में जितने भी पुद्गल स्कन्ध हैं उन सब को कितनी ही बार ग्रहण किया और छोड़ा है।
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