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तिहुयणसलिलं सयलं पीयं तिण्हाए पीडिएण तुमे ।'
तो विण तण्हाछेओ जादो चिंतेह भवमहणं ॥ १६३ ॥ प्यास से परेशान होकर तूने तीन लोक के सम्पूर्ण जल को पिया। तब भी तेरी प्यास नहीं बुझी। इसलिए संसार (जन्ममरण के चक्र) से मुक्त होने की बात सोच।
गहिउज्झियाई मुणिवर कलेवराई तुमे अणेयाइं ।
ताणं णत्थि पमाणं अणंतभवसागरे धीर॥ १६४ ॥ हे मुनिवर, हे धैर्यशाली, इस अनन्त संसार सागर में तूने जितनी देहों को धारण किया और छोड़ा उसकी कोई गिनती नहीं है।
विसबेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसंकिलेसेणं ।
आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिजए आऊ ॥ १६५ ॥ हिमजलणसलिलगुरुयरपव्वयतरुरुहणपडणभंगेहिं । रसविजजोयधारण अणयपसंगेहिं विविहेहिं ॥१९६ ॥ इय तिरियमणुयजम्मे सुइरं उववज्जिऊण बहुवारं ।
अवमिच्चुमहादुक्खं तिव्वं पतो सितं मित्त ॥ १६७ ॥ विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्रघात, संक्लेश भाव, आहार और श्वासनिरोध से आयु क्षीण होती है। हे मित्र, तिर्यंच और मनुष्य गति में भी बहुत काल तक बहुत बार उत्पन्न होकर तुझे शीत, आग और जल से, पेड़ और पहाड़ पर चढ़कर गिरने से, शरीर भंग होने से, पारा आदि भोजन में आ जाने से और अनीतिकर कार्यों के संयोग से असमय मृत्यु का भी महान दुःख झेलना पड़ा।
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