________________
छतीस तिण्णि सया छावट्ठिसहस्सवारमरणाणि ।
अंतोमुत्तमझे पतो सि निगोयवासम्मि ॥ १९८ ॥ निगोद में वास करते हुए तो तुझे एक अन्तरमुहूर्त में छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार मरना पड़ा।
वियलिंदए असीवी सट्ठी चालीसमेव जाणेह ।
पंचिंदिय चउवीसं खुद्दभवंतोमुहुत्तस्स ॥ १६६ ॥ इस अन्तरमुहूर्त के जीवन में दो इन्द्रियों के अस्सी, तीन इन्द्रियों के साठ, चार इन्द्रियों के चालीस और पाँच इन्द्रियों के चौबीस तो क्षुद्र जीवन होते हैं।
रयणत्ते सुअलद्धे एवं भमिदोसि दीहसंसारे ।
इय जिणवरेहिं भणिदं तं रयणत्तं समायरह ॥ २०० ॥ सम्यग्दर्शन चारित्र रूप रत्नत्रय को प्राप्त नहीं करने के कारण ही तुझे इस दीर्घ संसार में परिभ्रमण करना पड़ा। इसलिए बेहतर हो कि अब तू जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे गए रत्नत्रय को अपने जीवन में उतारे।
अप्पा अप्पम्मि रओ सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो ।
जाणदितं सण्णाणं चरदिह चारित्त मग्गुत्ति ॥२०१ ॥ आत्मा को आत्मा में लीन करने से जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता है। उस आत्मा को जानना सम्यग्ज्ञान है और उसे आचरण में उतारना सम्यक् चारित्र है। इस प्रकार का यह मोक्षमार्ग है।
56