________________
भावपाहुड (भावप्राभृतम्)
णमिऊण जिणवरिंदे णरसुरभवणिंदवंदिए सिद्धे ।
वोच्छामि भावपाहुडमवसेसे संजदे सिरसा ॥ १७१ ॥ तीर्थंकरों, सिद्धों तथा शेष (अर्थात् आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु) को, जो मनुष्यों, देवताओं तथा पाताललोक के देवों और इन सबके इन्द्रों द्वारा वन्दित हैं मैं सिर झुकाकर वन्दना करके भावपाहुड की रचना में प्रवृत्त होता हूँ।
भावो हि पढमलिंगंण दवलिंगं च जाण परमत्थं । .
भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणावेंति ॥ १७२॥ भाव की सत्ता ही सर्वोपरि है। जिनेन्द्र भगवान् का कथन है कि बाह्य स्वरूप को परमार्थ नहीं समझना चाहिए।
- भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ।
बाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुतस्स ॥ १७३॥ भाव की विशुद्धि के लिए बाह्य परिग्रहों का परित्याग किया जाता है। लेकिन यदि आभ्यन्तर में राग आदि का परिग्रह बना रहता है तो बाह्य परिग्रहों के परित्याग से कुछ नहीं होगा।
भावरहिओ ण सिज्झदि जदि वि तवं चरदि कोडिकोडीओ।
जम्मंतराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो ॥ १७४ ॥ व्यक्ति भले ही हाथों को लम्बा लटकाए हुए नग्न रहकर जन्मान्तरों तक कोटि कोटि तप करता रहे लेकिन अगर उसके आभ्यन्तर में भाव ही नहीं है तो उसे सिद्धि नहीं मिलेगी।
50