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सवसासत्तं तित्थं वचचइदालत्तयं च वुत्तेहिं । जिणभवणं अह वेज्झं जिणमग्गे जिणवरा विति ॥ १५१। पंचमहव्वयजुत्ता पंचिंदियसंजया णिरावेक्खा।
सज्झाझाणजुत्ता मुणिवरवसहा णिइच्छन्ति । १५२॥ स्वाधीन प्रदेश, तीर्थ, वच, चैत्य, आलय, जिनभवन आदि जिन स्थानों में जिनमतानुसार जिनवर का ध्यान करना सम्भव हो उन्हीं स्थानों को पंचमहाव्रतधारी, पाँचों इन्द्रियों का संयम रखने वाले, सर्वथा निरपेक्ष, स्वाध्याय और ध्यान में लीन श्रेष्ठ मुनि विशेष पसन्द करते हैं। ---
गिहगंथमोहमुक्का वावीसपरीसहाजि अकसाया।
पावारंभविमुक्का पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ १५३ ।। जो व्यक्ति घर और परिग्रह के मोह से मुक्त हो सके, बाईस परिषहों को सह सके, जिसने कषायों को जीत लिया हो और जो पाप रूप आरम्भ से खुद को बचा सके वही जिनदीक्षा का पात्र है।
धणधण्णवत्थदाणं हिरण्णसयणासणाइ छत्ताइ ।
कुद्दाणविरहरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। १५४ ॥ दीक्षा में धन, धान्य, वस्त्र, स्वर्ण, शयन, आसन, छत्र आदि का दान करना कुदान है। दीक्षा तो इनसे रहित होती है।
सत्तूमित्ते य समा पसंसणिंदा अलद्धिलद्धिसमा ।
तणकणए समभावा पव्वजा एरिसा भणिया ॥ १५५ ।। दीक्षा में शत्रु-मित्र, निन्दा-प्रशंसा, अलाभ-लाभ और तृण-स्वर्ण में समभाव रखना होता है।