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दंसण अनंतणाणे मोक्खो
कम्मबंधेण । णिरुवमगुणमारूढो अरहंतो एरिसो होइ ॥ १३७ ॥
अरिहन्त अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान से सम्पन्न होते हैं। वे आठ कर्मबन्धनों को नष्ट कर लेने कारण मोक्ष तथा अनुपम गुणों से भी सम्पन्न होते हैं। (मोक्ष की प्रमुख बाधा चार घाति कर्म हैं। इनका नष्ट होना सामान्य अर्थ में आठों कर्मों का नष्ट होना है ।)
जरवाहिजम्ममरणं चदुगदिगमणं च पुण्णपावं च । हंतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहंतो ॥ १३८ ॥
अरिहन्त बुढ़ापे, रोग, जन्म-मरण, चारों गतियों में गमन (भटकाव ), पुण्य-पाप तथा दोषों को उत्पन्न करने वाले कर्मों को नष्ट कर चुके होते हैं और केवल ज्ञानमय होते हैं।
गुणठाणमग्गणेहि य पज्जत्तीपाणजीवठाणेहि ।
ठावण पंचविहेहिं पणयव्वा अरहपुरिसस्स ॥ १३६ ॥ गुणस्थान, मार्गणास्थान, पर्याप्ति, प्राण तथा जीवस्थान इन पाँच प्रकारों से अरिहन्त की स्थापना करनी चाहिए ।
तेरह गुणठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहंतो ।
चउतीस अदिसयगुणा होंति हु तस्स अट्ठ पडिहारा ॥ १४० ॥ सयोग केवली अरिहन्त तेरहवें में गुण स्थान में होते हैं। उनके चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य होते हैं ।
गइ इंदियं च काए जोए वे कसाय णाणे य ।
संजम दंसण लेसा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ॥ १४१ ॥ गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी तथा आहार ये चौदह मार्गणा हैं ।
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