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उच्छाहभावणासंपसंससेवा सुदंसणे सद्धा ।
ण जहदि जिणसम्मत्तं कुव्वंतो माणमग्गेण ॥ ७७ ।। व्यक्ति अगर सुदर्शन के प्रति ज्ञानपूर्वक उत्साह, प्रशंसा तथा सेवाभाव रखनेवाला हो तो जैनमत के प्रति उसका सम्यग्दर्शन अक्षुण्ण बना रहता है।
अण्णाणं मिच्छत्तं वजह णाणे विसुद्धसम्मत्ते ।
अह मोहं सारंभं परिहर धम्मे अहिंसाए ॥७८ ॥ व्यक्ति को चाहिए कि वह ज्ञान, सम्यक्त्व और अहिंसा धर्म प्राप्त हो जाने पर फिर कभी अज्ञान, मिथ्यात्व और आरम्भ से परिपूर्ण मोह के चक्कर में न पड़े।
पव्वज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे ।
होदि सुविसुद्धझाणं णिम्मोहे वीयरायत्ते ॥ ७ ॥ परिग्रह से मुक्त दीक्षा, श्रेष्ठ तप और संयमभाव में ही व्यक्ति को प्रवर्तित होना चाहिए ताकि वह मोहरहित वीतरागता और मोहहीनता में रह सके तथा निर्मल शुक्ल ध्यान में अवस्थित हो सके।
मिच्छादसणमग्गे मलिणे अण्णाणमोहदोसेहिं। .
वझंति मूढजीवा मिच्छत्ताबुद्धिउदएण ।। ८० ॥ मूढ़ व्यक्ति मिथ्यात्व और अबुद्धि के उदय के कारण अज्ञान और मिथ्यात्व से मलिन हुए मिथ्या दर्शन के मार्ग पर चलते हैं।
सम्मइंसण पस्सदि जाणदिणाणेण दव्वपज्जाया ।
सम्मेथ स सद्दहदि य परिहरदि चरित्तजे दोसे ॥८१ ॥ आत्मा सम्यग्दर्शन द्वारा वस्तु को देखती है। सम्यग्ज्ञान द्वारा उसे जानती है। सम्यक्त्व द्वारा उस पर श्रद्धान करती है। इस प्रकार देखने, जानने और श्रद्धा करने से वह चारित्रगत दोषों का परिहार करती है।
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