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एए तिण्णि वि भावा हवंति जीवस्स मोहरहियस्स ।
णियुगणमाराहंतो अचिरेण य कम्म परिहरइ ॥८२॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीनों भाव मोहरहित जीव के होते हैं। ऐसा व्यक्ति अपने आत्मस्वरूप की आराधना करता हुआ शीघ्र ही कर्मों का नाश करने में समर्थ होता है।
संखिज्जमसंखिजगुणं च संसारिमेरूमत्तांणं ।
सम्मत्तमणुचरंता करेंति दुक्खक्खयं धीरा ॥ ८३॥ सम्यक्त्व के मार्ग पर चलते हुए धैर्यवान व्यक्ति सांसारिक अस्तित्व के कारण स्वरूप संख्यात गुणा, असंख्यात गुणा कर्मों का और उनसे उपजे दुख का क्षय करते हैं।
दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं ।
सायारं सग्गथे परिग्गहा रहिय खलु णिरायारं ॥८४ ॥ संयम का आचरण दो प्रकार का है- सागार और अनागार । सागार संयम परिग्रहयुक्त होने के कारण श्रावकों का और अनागार संयम परिग्रहरहित होने के कारण मुनियों का विषय है।
दसण वय सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य ।
बंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदो य ॥८५ ॥ सागार संयमाचरण के तहत देशविरत के ग्यारह प्रकार हैं-दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, ब्रह्मचर्य और सचित्त त्याग, रात्रि भोजन त्याग, आरम्भत्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग तथा उद्दिष्ट त्याग। (दूसरे शब्दों में ये श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं हैं)
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