________________
पंचेव णुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि ।
सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं य सायारं ॥८६॥ सागार (श्रावक) के संयमाचरण में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत होते हैं।
थूले तसकायवहे थूले मोषे अदत्तथूले य ।
परिहारो परमहिला परिग्गहारंभपरिमाणं ॥८७॥ स्थूल हिंसा यानी त्रस जीवों के वध, स्थूल असत्य, स्थूल परद्रव्य हरण और परस्त्री इन चार से विरत होना तथा आरम्भ-परिग्रह का परिमाण बांधना इस प्रकार ये पाँच अणुव्रत हैं।
दिसिविदिसिमाण पढम अणत्थदंडस्स वजणं विदियं ।
भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि ॥८८॥ दिशा, विदिशा में गमन का परिमाण निश्चित रखना, अनर्थदण्ड की वर्जना और भोगोपभोग का परिमाण बाँधना ये तीन गुणव्रत हैं।
सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं ।
तइयं च अतिहिपुजं चउत्थ सल्लेहणा अंते ॥८६॥ सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिपूजाऔर सल्लेखना ये चार क्रमशः प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ शिक्षाव्रत हैं।
एवं सावयधम्म संजमचरणं उदेसियं सयलं ।।
सुद्धं संजमचरणं जइधम्मं णिक्कलं वोच्छे ॥ १० ॥ इस प्रकार सागार (श्रावक) धर्म के संयम आचरण का उल्लेख करने के बाद अब मैं अनागार यानी मुनिधर्म के निर्मल संयम आचरण का वर्णन करता हूँ।
30