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भावेह भावसुद्धं फुडु रइयं चरणपाहुड चेव।
लहु चउगइ चइऊणं अइरेण पुणब्भवा होदि॥१०८ ॥ आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि मैंने भावनाओं से शुद्ध और बहुत सुलझे हुए रूप में चारित्र पाहुड (चारित्र प्राभृत) की रचना की है। आप पाठकगण इसे बार बार अपने भावों में लाएं ताकि आपको शीघ्र ही मोक्ष मिल सके और आप चार गतियों में होने वाले पुनर्जन्म से मुक्त हो सकें।
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