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चारित्तपाहुड (चारित्रप्राभृतम्)
सव्वण्हु सव्वदंसी णिम्मोहा वीयराय परमेट्ठी। वंदित्तु तिजगबंदा अरहंता भव्वजीवेहिं ।। ६४ ॥ णाणं दंसण सम्मं चारित्तं सोहिकारणं तेसिं ।
मोक्खाराहणहेउं चारित्तं पाहुड वोच्छे ॥ ६५ ॥ सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, मोहमुक्त, वीतराग और भव्य जीवों द्वारा सदैव वन्दित अरिहन्त परमेष्ठी की वन्दना करके मैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को शुद्ध करने वाले चारित्रप्राभृत का विवेचन करता हूँ। यह चारित्रप्राभृत मोक्ष का कारण
जंजाणइ तंणाणं जं पेच्छइ तं य दंसणं भणिदं ।
णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होदि चारित्तं ॥६६॥ . हम जो जानते हैं वह ज्ञान है। जो देखते हैं वह दर्शन है। ज्ञान और दर्शन के समायोग से जो घटित होता है, हमारे भीतर चरितार्थ होता है वह चारित्र है।
एए तिण्णि विभावा हवंति जीवस्स अक्खयामेया ।
तिण्हं पिसोहणत्थे जिणभणियं दुविह चारित्तं ॥ ६७ ॥ ज्ञान, दर्शन और चारित्र जीव (आत्मा) के अक्षय और अनन्त भाव हैं। इनके शोधन के लिए जिनेन्द्र भगवान् ने चारित्र को दो प्रकार का कहा है।
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