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जइ सणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सावि संजुत्ता ।
घोरं चरिय चरित्तं इत्थीसुण पव्वया भणिदा ॥६१ ॥ लेकिन यदि स्त्री सम्यग्दर्शन से निर्मल है, कठोर तपश्चरण कर चुकी है तो वह मोक्ष के मार्ग में है। उसे पापयुक्त नहीं कहा जा सकता।
चित्तासोहि ण तेसिं ढिल्लं भावं तधा सहावेण ।
विजदि मासा तेसिं इत्थीसु ण संकया झाणा ॥६२ ॥ स्त्रियों के चित्त में शुद्धता नहीं होती, स्वभाव में शिथिलता होती है, मासिक स्राव होता है। इसलिए वे निःशंक ध्यान नहीं कर सकतीं।
गाहेण अप्पगाहा समुद्दसलिले सचेलअत्थेण।
इच्छा जाहु णियत्ता ताह णियत्ताइं सव्वदुक्खाइं ॥६३ ॥ अपना वस्त्र धोने के लिए जैसे समुद्र से थोड़ा ही जल ग्रहण किया जाता है वैसे ही जो मुनि ग्रहण करने योग्य आहारादि भी अल्प ही ग्रहण करता है वह इच्छाओं से और फलस्वरूप दुःखों से निवृत्त हो जाता है।