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वालग्गकोडिमेत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं ।
भुंजेइ पाणिपत्ते दिण्णण्णं इक्काठाणम्मि ॥ ५३ ॥ मुनिजन तो बाल के अग्रभाग के बराबर भी परिग्रह नहीं पालते। आहार लेते वक्त उनके हाथ ही आहार ग्रहण करने के उनके पात्र होते हैं। अन्नभी दूसरे का दिया होता है और वह भी वे एक बार एक ही स्थान पर ग्रहण करते हैं।
जहजायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिहदि हत्थेसु ।
जइ लेइ अप्पबहुयं तदो पुण जादि णिग्गोदं ॥५४ ॥ मुनि तो यथाजात रूप (शिशु की तरह जैसे जन्म लेते हैं वैसे) होते हैं। तिल का तुष मात्र आहार भी अपने हाथ से लेकर ग्रहण नहीं करते। यदि कम या ज्यादा अपने हाथ से लेते हैं तो उन्हें निगोद में जाना पड़ता है।
जस्स परिंग्गहगहणं अप्पं बहुदं य होदि लिंगस्स ।
सो गरहिउ जिणवयणे परिग्गहरहिओ णिरायारो ॥ ५५ ॥ जो मुनि कम या ज़्यादा परिग्रह से ग्रस्त है वह निन्दनीय है। जिन शासन के मतानुसार अनागार (मुनि) को तो सर्वथा परिग्रह रहित होना चाहिए।
पंचमहव्वयजुत्तो तिहिं गुत्तिहिं जो स संजदो होदि ।
णिगंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिजो य ॥ ५६ ॥ जो मुनि पाँच महाव्रतों और तीन गुप्तियों से सम्पन्न हो, संयमवान, निर्ग्रन्थ तथा मोक्ष मार्ग का विश्वासी हो वही वन्दनीय होता है।
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