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अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्म संजुत्ता ।
चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जा य ॥ ४६ ॥ वे साधु जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान से सम्पन्न हैं और एक वस्त्रधारी (जैसे क्षुल्लक) हैं वे भी नमन के योग्य हैं।
इच्छायारमहत्थं सुत्तठिओ जो हु छंडए कम्मं ।
ठाणे ट्ठियसम्मत्तं परलोयसुहंकरो होदि ॥ ५० ॥ जिन सूत्र में उल्लिखित इच्छाकार (मैं निज स्वरूप की वांछा करता हूँ) के महान अर्थ से परिचित व्यक्ति निश्चय ही कर्मों का त्याग करता है। वह विशेष प्रतिमाधारी और सम्यग्दर्शन से युक्त (श्रावक) है। वह परलोक में सुख भोगता है।
अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माई करेइ णिरवसेसाई ।
तह विण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ॥५१॥ जो आत्मस्वरूप की इच्छा नहीं करता और तमाम धर्म (दान, पुण्य आदि) करता फिरता है उसे सिद्धि (मोक्ष) नहीं मिलती। वह संसार में ही बना रहता है। उसका जन्ममरण का चक्र समाप्त नहीं होता।
एएण कारणेण यतं अप्पा सद्दहेह तिविहेण ।
जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिजह पयत्तेण ॥ ५२ ॥ आत्मा के द्वारा ही मोक्ष मिलता है। इसलिए उसके प्रति मन, वचन, काय से श्रद्धा करना चाहिए। कम से कम उसे प्रयत्नपूर्वक जानना तो चाहिए।
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