________________
सुत्तपाहुड (सूत्रप्राभृतम्)
अरहंतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं ।
सुत्तत्थमग्गणत्थं सवणा साहंति परमत्थं ॥ ३७ ॥ अरिहन्तों द्वारा कहे गए और गणधर देवों द्वारा भाषा में भली प्रकार निबद्ध किए गए सूत्रों के अर्थ से मुनिजन परमार्थ (मोक्ष) को साधते हैं।
सुत्तम्मि जं सुदिळं आइरियपरंपरेण मग्गेण ।
णाऊण दुविह सुत्तं वट्टदि सिवमग्ग जो भव्वो ॥ ३८॥ सूत्रों में भली प्रकार प्रतिपादित और फिर आचार्य परम्परा से प्राप्त हुए उनके शब्द
और अर्थ को जो व्यक्ति समझता है और जीवन में उतारता है वह मोक्षमार्ग का पथिक है।
सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि ।
सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि ॥ ३९ ॥ जैसे धागे से रहित सुई खो जाती है लेकिन धागे में पिरोई हुई नहीं खोती वैसे ही जिनसूत्र से युक्त यानी जिनसूत्र का ज्ञाता व्यक्ति ही संसार से, जन्ममरण के चक्र से बचा रहता है।
पुरिसो वि जो ससुत्तोण विणांसइ सो गदो वि संसारे ।
सच्चेदण पच्चक्खं णासदितं सो अदिस्समाणो वि ॥ ४० ॥ जो व्यक्ति जिनसूत्र से सम्पन्न है वह संसार में पड़कर भी नष्ट नहीं होता। अदृश्य होने पर भी उसका स्वसंवेदन उसके प्रत्यक्ष अनुभव में आता है। दरअसल वह तो संसार का यानी आवागमन के चक्र का ही नाश कर देता है।