Book Title: Atthpahud
Author(s): Kundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalay

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Page 13
________________ जे दंससु भट्ठा पाए ण पडंति दंसणधराणं । ते होंति लल्लमुआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं ॥ १२ ॥ जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन से भटके हुए हैं मगर सम्यग्दृष्टि सम्पन्न व्यक्तियों के चरण स्पर्श नहीं करते, वे लूलामूका यानी एकेन्द्रिय जीव के रूप में जन्म लेकर निगोद में रहते हैं। उन्हें बोधि की प्राप्ति नहीं होती । वि पडंति य तेसिं जाणंता लज्जागारवभयेण । तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं ॥ १३ ॥ और जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन से सम्पन्न हैं लेकिन सम्यग्दर्शन से भटके हुए व्यक्तियों को जानते हुए भी उनके चरणों का स्पर्श, लज्जा, भय अथवा गौरव के कारण कर हैं उन्हें भी बोधि की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि वे पाप का अनुमोदन कर रहे हैं। दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएस संजमो ठादि । णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होदि ॥ १४ ॥ आभ्यन्तर और बाह्य परिग्रह के त्यागी, मन वचन काय के योगों में संयमी, कार्य को करने, कराने और अनुमोदित करने में शुद्धता का निर्वाह करने वाले खड़े रहकर भोजन ग्रहण करने वाले सम्यग्दर्शन की मूर्ति स्वरूप व्यक्ति ही वन्दनीय हैं। सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी । उवलद्धापयत्थे पुण सेयासेयं वियादि ॥ १५ ॥ सम्यग्दर्शन से सम्यग्ज्ञान और सम्यग्ज्ञान से सभी पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का बोध उत्पन्न होता है। तमाम उपलब्ध पदार्थों की कल्याण - अकल्याणकारकता भी सम्यग्ज्ञान से ही समझ में आती है। 122

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