________________
सम्मत्तरयणभट्ठा जाणंता बहुविहाई सत्थाई ।
आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ॥ ४ ॥
सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति भले ही बहुत प्रकार के शास्त्रों का ज्ञाता हो लेकिन आराधना रहित होने के कारण वह नरक और संसार में ही परिभ्रमण करता रहता है। उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती ।
सम्मत्तविरहिया णं सुठु वि उग्गं तवं चरंता णं । ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं ॥ ५ ॥ सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति भले ही हज़ार करोड़ वर्ष तक कठोर तपस्या करे तो भी उसे बोधि / मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती ।
सम्मत्तणाणदंसणबलवीरियवड्ढमाण जे सव्वे । कलिकलुसपावरहिया वरणाणी होंति अइरेण ॥ ६ ॥
जिन व्यक्तियों में सम्यग्ज्ञान, दर्शन, बल तथा वीर्य की भरपूरता है और जो मलिन पापों से रहित हैं वे इस पंचम काल में भी शीघ्र ही केवल ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
सम्मत्तसलिलपवहो णिच्वं हियए पवट्टए जस्स ।
कम्मं वालुयवरणं बन्धुच्चिय णास तस्स ॥ ७ ॥
जिस व्यक्ति के हृदय में सम्यग्दर्शन का जल प्रवाह निरन्तर बना रहता है उसे कर्म की बालूरज आवृत नहीं करती अर्थात् उसे कर्मों का बन्ध नहीं होता। अगर कर्मों की बालूरज ने उसे पहले से आवृत कर रखा हो तो वह भी हट जाती है। यानी उसका पुराना कर्मबन्ध भी छूट जाता है।
10