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अट्टपाहुड (अष्टप्राभृतम्)
आचार्य कुन्दकुन्द
दंसणपाहुड (दर्शनप्राभृतम्)
काऊ णमुक्कारं जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स । दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकम्मं समासेण ॥ १ ॥
आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव और तीर्थंकर भगवान् महावीर को नमन करके मैं संक्षेप में और क्रमानुसार सम्यग्दर्शन का विवेचन करता हूँ।
दंसणमूलो धम्मो उवद्दट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं ।
तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो ॥२॥
भगवान् जिनेन्द्रदेव ने शिष्यों को स्पष्ट उपदेश दिया है कि सम्यग्दर्शन ही धर्म की है । जो व्यक्ति इस उपदेश को समझते हैं वे सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति की वन्दना नहीं करते।
दंसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं ।
सिज्झति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिज्झति ॥ ३ ॥
जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन से भटक जाते हैं वे भटके हुए ही रहते हैं। उन्हें मोक्ष और सिद्धि नहीं मिलती। इसके विपरीत जो व्यक्ति (कर्मों के उदय से ) सम्यक् चारित्र से भटक
हैं उनके फिर सही मार्ग पर आने और सिद्धि पाने की सम्भावना रहती है।