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Jan Stod
जैन समाज के प्रखर शिक्षा शास्त्री
बम्बई में विक्रम संवत् 2010 आश्विन कृष्णा एकादशी को जब गुरुदेव का स्वर्गवास हुआ तब रेडियों में प्रसारित हुआ कि जैन समाज के प्रखर शिक्षाशास्त्री का आज बम्बई में निधन हो गया इस सूचना से यह बात स्पष्ट होती है कि आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरीश्वरजी म. वास्तव में एक प्रखर शिक्षा शास्त्री थे। उन्होंने जीवन पर्यन्त शिक्षा प्रचार हेतु सरस्वती मंदिर, गुरुकुल, स्कूल, कालेज, विद्यालय तथा बोर्डिंग हाउसों की स्थापना कराई। वे जैन समाज को इन सबके लिए सतत प्रेरणा एवं उपदेश देकर जाग्रत करते रहते थे। क्योंकि आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वर जी म. ने जीवन के अन्तिम समय में उन्हें
महान गुरु की यह भविष्यवाणी निश्चित रूपेण सफल सिद्ध हुई। क्योंकि उनके प्रिय शिष्य वल्लभ ने अपने गुरु की भावना को साकार रूप देने के लिए अनेक स्थानों पर स्कूल, कालेज, विद्यालय आदि खुलवाये।
जीवन की अंतिम सांस तक शिक्षा-प्रचार, गरीब विद्यार्थियों को छात्र-वृत्तियाँ दिलवाना, स्कूल कालेजों की समुन्नति, साहित्य प्रचार तथा विदेशों में जैन पंडितों को भिजवाना आदि योजनाओं पर चिन्तन मनन करते रहे और उन्हें कार्यान्वित कराने के लिए प्रयत्नशील रहे।
इन शिक्षण-मंदिरों की स्थापना में उन्हें काफी कष्ट उठाने पड़े। इतना ही नहीं, उनके इन नव निर्माण के कार्य का विरोध अधिकांश अपने ही समुदाय के आचार्य और मुनियों ने किया और आज भी उनका विरोध कुछ अंशों में चालू है। उन आचार्यों का कहना है किव्यावहारिक ज्ञान मानव को अवनति की ओर ले जाता है। साधु-सन्तों के लिए तो विशुद्ध धार्मिक, आत्मिक ज्ञान का ही उपदेश एवं प्रचार करना उचित है। स्कूल, कालेज खुलवाना धार्मिक नहीं, अपितु अधार्मिक तथा पापकारी प्रवृत्ति है। क्योंकि कालेजों में व्यावहारिक विद्या का ज्ञान कराया जाता है। इतने विरोधों-अवरोधों के बावजूद गुरुदेव अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते
आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी अपने प्रवचनों में कहा करते थे कि जैन-दर्शन का सिद्धान्त "पढमं नाणं तओ दया" तथा "ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्ष : " का है। ज्ञान आत्मा का सहज
यह आदेश दिया था, "बल्लभ!" जिन मन्दिरों का निर्माण तो हो गुण है। ज्ञान, ज्ञान ही है। उसमें किसी प्रकार का अन्तर या भसन्तानों को केवल धार्मिक ज्ञान ही दिलवाया हो, व्यावहारिक
गया, अब सरस्वती मन्दिरों की स्थापना कराना शेष है। अत: मुझे पूरा विश्वास है कि तुम इसे अवश्य पूरा करोगे। क्योंकि इस काम की तुममें पूरी क्षमता है।"
नहीं। ज्ञान, जीव का श्रेष्ठ गुण है और मोक्ष मार्ग का प्रवर्तक है। भव-समुद्र से पार होने के लिए जहाज रूप है और मुक्ति धाम का 'दीपक है।'
ज्ञानं श्रेष्ठगुणों जीवे, मोक्षमार्ग प्रवतर्कः । भवाब्धितारणे पोतः, श्रृंगारसिद्धिसशनः । । जैनाचार्यों ने अज्ञान को राग-द्वेषु क्रोधदि कषाओं से भी अधिक महाकष्ट कर कहा है। "अज्ञानं खुल भो कष्ट रागादिकषायेभ्यः " । व्यवहार में काम आने वाले ज्ञान को व्यावहारिक और धार्मिक क्षेत्र में काम आने वाले ज्ञान को धार्मिक ज्ञान कहा जाता है।
जिस प्रकार आत्मा और शरीर का सम्बन्ध अनादि है, इसी प्रकार व्यवहार और धर्म का सम्बन्ध भी अनादि है। व्यावहारिक ज्ञान के बिना धर्म का, अध्यात्म का ज्ञान असम्भव है। अतः आदिनाथ भगवान ने लिपि और कला के ज्ञान का प्रथम उपदेश दिया।
रहे।
पू० गुरुदेव को अपने गुरु से दिव्य संदेश के रूप में सरस्वती-मंदिरों की स्थापना एवं संघ, समाज और राष्ट्र उत्थान आदि के स्पष्ट विचार मिल चुके थे। अतः वे अनेक प्रकार के विरोधी वातावरण तथा भीषण कठिनाइयों में भी अडिग रहे।
ज्ञानावरणीय कर्म के भेदों में व्यावहारिक ज्ञानावरणीय और धार्मिक ज्ञानावरणीय ऐसा भेद है ही नहीं। किसी भी प्रकार के ज्ञान की आशातना करने से ज्ञानावरणीय कर्मा का बन्ध होता है। तो उसका प्रचार और ज्ञान के कार्य में दान दिलाने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय भी अवश्य होगा।
जिस जैन दर्शन ने ज्ञान के 51 भेदों में मिथ्याज्ञान को "मिथ्याज्ञानाध्यनमः" कह कर नमस्कार किया हो, वह कभी भी व्यावहारिक ज्ञान का निषेध नहीं कर सकता मिथ्या ज्ञान भी सम्यक ज्ञान का कारण होने से नमस्करणीय है। फिर व्यावहारिक ज्ञान। धार्मिक ज्ञान के लिए विशेष उपयोगी होने से उसकी सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है, क्योंकि व्यावहारिक ज्ञान तो धार्मिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान की नींव है।
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गुरुदेव ने हजारों विद्यार्थियों को छात्रवृत्तियां दिलवा कर कितना महान् कार्य किया और ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय भी किया। साधु-साध्वियों को भी व्याकरण, काव्य, छन्दशास्त्र, दर्शनशास्त्र, गणित, इतिहास व ज्योतिष आदि का व्यवहारिक ज्ञान करना ही पड़ता है। जब साधु-साध्वियाँ तक व्यावहारिक ज्ञान पढ़ते हैं तो गृहस्थ-सन्तानों को व्यावहारिक ज्ञान दिलाने में पाप लगता है और वह संसार वृद्धि का कारण है, यह कहना कहाँ तक उचित है? आज कितने ऐसे श्रावक निकलेंगे, जिन्होंने अपनी
नहीं ? दुःख इस बात का है कि स्कूल और कालेजों का विरोध करने वाले भाई स्वयं अपनी संतानों को विदेशों में पढ़ने के लिए भेजते हैं। किंतु जब उनके सामने निर्धन साधर्मिक विद्यार्थियों को पढ़ाने, सहायता और सहयोग का प्रश्न आता है। तब यही श्रावक व्यावहारिक ज्ञान को पापमय और संसार वृद्धि का कारण बताने लग जाते हैं। यदि व्यावहारिक ज्ञान संसार वृद्धि का कारण है तो अपनी संतानों को पढ़ाने के लिए हजारों का दान क्यों देते हैं? क्यों इतने मंहगे स्कूल-कालेज ढूँढते हैं?
दूरदर्शी गुरुदेव का इन शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से व्यावहारिक एवं धार्मिक ज्ञान देने के साथ-साथ संस्कारों का सिंचन कराना भी लक्ष्य था। यही कारण है कि इन संस्थाओं से कई बालक राष्ट्रभक्त, समाज-सेवक, धर्म-प्रचारक, धर्मगुरु और साहित्यकार के रूप में तैयार हुए।
आत्मानंद जैन कालेज, अम्बाला में पढ़ने वाले एक मुसलमान विद्यार्थी ने अपने जीवन का अनुभव सुनाते हुए एक समय कहा था कि "मैं मुसलमान होने के कारण मांसाहारी था; परन्तु जैन कालेज में पढ़ने से और यहां के अहिंसा प्रधान वातावरण ने एवं धार्मिक शिक्षा ने मुझे शाकाहारी बना दिया। अपने घर में कुछ दिनों तक संघर्ष करना पड़ा। अन्त में मुझे सफलता मिली।" यह प्रसंग मुझे शान्त-तपोमूर्ति आचार्य श्रीमद् विजयसमुद्र सूरीश्वर जी म. ने सुनाया था।
-आचार्य विजय जनकचन्द सूरि
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