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सर्वधर्म समन्वयी, प्रशान्ततपोमूर्ति, योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् विजय जनक चन्द्र सूरीश्वर जी म. का जन्म गुजरात के ऐतिहासिक नगर जम्बूसर में वि.सं. 1982 में हुआ था। उनका बचपन का नाम सुरेन्द्र कुमार था। अट्ठारह वर्ष की वय में उन्होंने वि. सं. 2000 में वरकाणा में दीक्षा ली। दस वर्ष तक निरंतर वे आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी म. के. पावन सानिध्य में रहे। स्वर्गीय गुरुदेव की क्रांतिपूत विचार धारा उन्होंने आत्मसात की।
यद्यपि उनकी जन्म भूमि गुजरात है फिर भी उनका कार्यक्षेत्र उत्तरी भारत रहा है। आचार्य श्रीमद् समुद्र सूरीश्वरजी म. ने उन्हें सूरत में सं. 2011 में गणि पद से अलंकृत किया। उन्हीं की आज्ञा लेकर उन्होंने पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रवेश के छह सौ गांवों में अहिंसा एवं शाकाहार का प्रचार दस वर्षों तक किया। इसके साथ-साथ पंजाब को तो उनकी और भी महती देन है। गुरुभक्तों की युवा पीढ़ी को संस्कारी एवं धर्मनिष्ठ बनाने के लिए "जैन दर्शन शिक्षण शिविर" का आयोजन किया। आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी म. की जन्मभूमि 'लहरा' में चातुमांस कर पूरे गांव को अहिंसा प्रेमी बनाया स्थानकवासी और मूर्तिपूजकों के आपसी मतभेद एवं मन-भेद को दूर कर दोनों को एकता सूत्र में बांधने का भी महत प्रयत्न किया है। उन्हीं के प्रयत्नों का फल है कि आज पंजाब में उक्त दोनों संप्रदायों के लोग कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करते हैं।
उनकी महती शासन सेवा एवं मानवता के उदात्त कार्यों को देखते हुए आचार्य श्रीमद् विजयेन्द्र दिन सूरीश्वरजी म. ने उन्हें सं. 2039 में आचार्य पदवी से विभूषित किया। 'विजय बल्लभ स्मारक' को भी समय समय पर उनका सहयोग, मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद मिलता रहा है।
गत पंद्रह वर्षों से मानव निर्माण के बुनियादी कार्यों के साथ-साथ अन्तमुर्ती आत्मसाधना में भी वे लीन रहे हैं और 'सामायिक ध्यान साधना शिविर का आयोजन कर आन्तरिक उपलब्धि के नवनीत को आतं जनता में मुक्तहस्त से वितरित करते आ रहे हैं। इस ध्यान साधना के द्वारा अनके लोगों को आध्यात्मिक अनुभूति सम्पन्न बनाया है। आज के तनावग्रस्त, भयभीत और अशान्त मानद के लिए उनकी यह पद्धति वरदान सिद्ध हुई है।
आचार्य श्री विजय जनक चन्द्र सूरीश्वरजी म. का विश्वास ठोस, रचनात्मक एवं पारिणामिक कार्य में रहा है। जीवन सुधार और मानव निर्माण ही उनका ध्येय है। उनका मानना है कि भगवान महावीर की परंपरा के प्रत्येक श्रमण को सर्वोदयी होना चाहिए। उन्होंने जो कार्य किए हैं और कर रहे हैं वे केवल जैन समाज के लिए ही नहीं, पर मानव मात्र के लिए कर रहे हैं। उनके कार्यों में न जाति बाधक बनती है न संप्रदाय न ही देश काल की सीमा। इस प्रकार भगवान महावीर के सर्वोदयी विचार को क्रियान्वित कर जैन समाज एवं उसकी श्रमण परंपरा के लिए उन्होंने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनके विशाल कार्यों और विराट् व्यक्तित्व को सीमित शब्दों में नहीं बांधा जा सकता।
इस समय इस अवस्था में भी वे महाराष्ट्र के सुदूर क्षेत्रों में अहिंसा, शाकाहार, मद्यनिषेध आदि सर्वोदयी मानव सेवा का सराहनीय महान् कार्य निष्काम भाव से कर रहे हैं।