________________
20
अग्र पूजा विधिः
प्रभु के सन्मुख धूप-दीप-अक्षत आदि द्रव्य पदार्थों से की जाती हुई पूजा अग्र-पूजा कहलाती है। अग्र-पूजा का क्रम निम्न प्रकार से है
1. धूप पूजा
धूप-पूजा
सुगंधित धूप को जलाकर प्रभुजी की करनी चाहिये। द्रव्य-पूजा स्वद्रव्य से करनी चाहिये, अतः धूप आदि भी अपना ही लावें।
यदि स्वयं की शक्ति न हो अथवा धूप नहीं लाये हो तो इतना ध्यान रक्खें कि यदि धूप-दानी में अगरबत्ती जल रही हो तो नई नही जलावें ।
धूप पूजा के समय निम्न दोहा बोलें
ध्यान घटा प्रगटावीये, वाम नयन जिन धूप। मिच्छत दुर्गंध दूर टले, प्रगटे आत्म स्वरूप ।। धूप-पूजा के बाद
2. दीपक-पूजा:
शुद्ध घी के दीपक को जलाकर दीपक पूजा करें दीपक-पूजा के समय निम्न दोहा बोलें। ब्रव्य-दीप सुविवेकथी, करता दुःख होय भाव दीप प्रगट हुए, भासित लोका-लोक
दीपक-पूजा की समाप्ति के बाद दीपक को इस प्रकार ढंक दें कि दीपक भी जलता रहे और उसमें अन्य सूक्ष्म जन्तु भी न गिरें। उसके बाद
3 अक्षत पूजा:
कंकड़ आदि से रहित तथा अखंड अक्षत से स्वस्तिक आदि की रचना कर अक्षत पूजा करें।
अक्षत अथवा चावल अक्षत पूजा का ध्येय आत्मा को अक्षय पद प्राप्त कराने का है। अक्षत शब्द अक्षय-पद का सूचक है। अक्षत द्वारा की गई (स्वस्तिक की रचना
स्वस्तिक की रचना कर व्यक्ति परमात्मा के समक्ष अपना आत्म-दर्द प्रस्तुत करता है। स्वस्तिक के चार पक्ष (देवमनुष्य- तिर्यञ्च व नरक) चार गति के सूचक है। उसके ऊपर की गई तीन ढगलियाँ सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शन व सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रयी की सूचक हैं तथा सबसे ऊपर अर्ध चन्द्राकार की आकृति सिद्धि-शिला तथा उसके ऊपर अक्षत श्रेणी सिद्ध भगवंतों की हैं। सूचक
इसके द्वारा साधक परमात्मा से प्रार्थना करता है कि है परमात्मन्! इस चार -गति रूप भयंकर संसार में अनादि काल से मैं भटक रहा हूँ। आपकी इस पूजा द्वारा मुझे रत्नत्रयी की प्राप्ति हो, कि जिसके पालन से मैं भी सिद्धि गति को प्राप्त कर संसार से मुक्त बन जाऊँ ।
फ्र
स्वस्तिक रचना समय उपरोक्त भाव को व्यक्त करने वाले दोहे:
चिह्न गति भ्रमण संसार मां, जन्म मरण जंजाल । अष्ट कर्म निवारवा, मागुं मोक्ष फल सार ।। अक्षत-पूजा करता थका, सफल करूं अवतार। फल मांगु प्रभु आगले, तार-तार मुज तार।।
दर्शन ज्ञान चारित्रना, आराधनथी सार । सिद्ध - शिलानी उपरे, हो मुज वास श्रीकार ।। उपरोक्त भाव पूर्वक अक्षत-पूजा के बाद
नैवेद्य-पूजा:
अनादि काल से आत्मा में रही हुई आहार की मूच्छों को उतारने के ध्येय से नैवेद्य-पूजा करने की है। नैवेद्य अर्थात् मेवा-मिष्टान इत्यादि ।
स्वस्तिकादि के ऊपर नैवेद्य रख कर नैवेद्य पूजा करनी
चाहिये। नैवेद्य
के समय निम्नोक्तर दोहा बोलें-पूजा अणाहारी पर में कर्णा, विग्गहईय अनंत। दूर करी ते दीजियें, अणाहारी शिव-संत। भावार्थ::-आत्मा एक गति से दूसरी गति में जाते समय यदि विग्रत गति में गई होवे तब (मात्र एक दो या तीन समय) सम्पूर्ण आहार का त्याग करती है, अर्थात् विग्रह-गति के सिवाय समस्तकाल में आत्मा आहार ग्रहण करती ही है, इस स्तुति द्वारा पूजक परमात्मा से यह प्रार्थना करता है कि हे परमात्मा! विग्रह गति के अन्तर्गत तो मैंने अनंतबार अणाहारी अवस्था को प्राप्त की है, परन्तु यह क्षणिक अवस्था तो मेरी आत्मा को कैसे आनन्द दे सकती है, अतः उस अणाहारी अवस्था को छोड़कर शाश्वत मोक्ष रूप अणाहारी अवस्था मुझे प्रदान करें।
फल पूजा :
नैवेद्य-पूजा के बाद अंग-पूजा की अंतिम पूजा फल-पूजा है। अग्र पूजा की समाप्ति समय फल की याचना स्वरूप यह पूजा है। सुगंधी, ताजे व कीमती फलों से फल-पूजा कर परमात्मा से सर्व अनुष्ठान के फल रूप-पद और तत्साधक संयम रूप फल की याचना करने की है।
इन्द्रादिक- -पूजा मणी, फल लावे धरी राग । पुरुषोत्तम पूजा करी, मांगे शिव फल त्याग ।। चामर व नृत्य पूजा:
अष्ट प्रकारी पूजा की समाप्ति के बाद पूजक का हृदय हर्ष से भाव-विभोर हो उठता है, अतः उस भक्ति भाव से पूजक का देह भी नाच उठता है। 'मुक्तिथी अधिक तुज भक्ति मुज मन वशी'-भाव को व्यक्त करने वाली चामर व नृत्य पूजा करनी चाहिये।
मस्तक झुका कर चामर विझते हुए नृत्य सहित यह पूजा करनी चाहिये।
www.img