Book Title: Atmavallabh
Author(s): Jagatchandravijay, Nityanandvijay
Publisher: Atmavallabh Sanskruti Mandir

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Page 231
________________ 8 व्यक्त की एवं स्मारक कार्य को और आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपना आशीर्वाद साध्वी जी तथा श्री संघ को प्रदान किया। स्मारक निधि की स्थापना और भूमि क्रय के पश्चात निधि की कार्यकारिणी ने अपनी सब उपलब्धियां महासभा को अर्पण कर दीं और अपने उत्तरदायित्व को सम्पूर्ण कर सन्तोष प्राप्त किया। परन्तु महासभा के कार्यकर्ताओं ने लगभग एक वर्ष बाद विजय वल्लभ स्मारक की समस्त योजना और कार्यान्वयन की पूर्ण जिम्मेदारी पू. मृगावती जी की उपस्थिति में स्मारक निधि को ही वापिस सौंप दी। निधि ने दिल्ली रूप नगर में एक कार्यालय की स्थापन कर, कार्य को आगे बढ़ाने की योजना बनाई। सन् 1974 के दिसम्बर मास में आचार्य विजय समुद्र सूरि जी महाराज साहिब का 84वां जन्मदिन युवा चेतना दिवस में बड़ी धूमधाम के साथ दिल्ली में मनाया गया। सैकड़ों युवकों ने समाज सेवा और धर्म पारायण जीवन बिताने के प्रण लिये भारत सरकार के मंत्री श्री इन्द्र कुमार गुजराल मुख्य अतिथि के रूप में इस महोत्सव में पधारे। सकल श्री संघ ने बड़े भावपूर्ण ढंग से आचार्य महाराज को जिनशासनरत्न की उपाधि से अलंकृत किया। गुरुदेव जनवरी 1975 में हरियाणा पंजाब की ओर विहार करते हुए स्मारक भूमि पर पधारे और अपने वरदहस्त से उन्होंने परिक्रमा करते हुए इसकी नींव में वासक्षेप डाला एवं संतोष करते हुए आशीर्वाद प्रदान किया। सन् 1975 और सन् 1976 के चातुर्मास आचार्य महाराज के लुधियाना और होशियारपुर में हुए और इसके उपरान्त एक नव-निर्मित जिन मंदिर की प्रतिष्ठा करवाने के लिए वे मुरादाबाद की ओर विहार कर गये। मुरादाबाद का प्रतिष्ठा महोत्सव बड़े उल्लास के साथ सम्पन्न हुआ, परन्तु एक ही सप्ताह पश्चात् गुरुदेव अकस्मात देवलोक सिधार गये। सारा भारत इस क्षति पर विह्वल हो उठा। संघ और समाज के नेतृत्व का समस्त भार अब आचार्य विजयेन्द्र दिन्न सूरीश्वर जी के कन्धों पर आ पड़ा। वे मुनिमंडल को साथ लेकर गांव गांव में धर्म दर्शन देते हुए गुजरात की ओर चले गए। इधर पूज्य महत्तरा मृगावती जी महाराज के नेतृत्व और परामर्श से स्मारक निधि की कार्यकारिणी ने स्मारक के लिए एक बहुलक्षीय सुनियोजित रूप रेखा बनाई। जिसके अन्तर्गत निम्न कार्यक्रम चलाने का निर्णय किया गया: 1. भारतीय धर्म दर्शन पर शोध कार्य तथा अध्ययन एवं अध्यापन। Jain Education International • 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. संस्कृत और प्राकृत विद्यापीठ । पुस्तकालय तथा ग्रन्थागार । जैन एवं समकालीन कला का संग्रहालय | योग और ध्यान पर शोध कार्य । जन उपयोगी साहित्य रचना । पुरातन साहित्य का पुनः प्रकाशन । स्त्रियों के लिए कला और प्रशिक्षणशाला इत्यादि । उसी के अनुरूप भी आज सभी कार्यक्रम चल रहे हैं। सेठ कस्तूरभाई लालभाई इस निधि के सम्बल बने और उन्होंने कहा कि विजय वल्लभ सूरि जी महाराज की महान प्रतिभा के अनुरूप ही स्मारक निर्माण अति भव्य और विशाल होना चाहिए एवं इसका निर्माण पत्थर द्वारा करना चाहिए ताकि युग युगान्तर तक उनका यह कीर्ति चिन्ह अक्षुण्ण रह सके। सेठ आनन्दजी कल्याणजी पेढ़ी के मुख्य शिल्पी श्री अमृतलाल मूल शंकर त्रिवेदी द्वारा स्मारक भवन के प्लान बनवा कर उन्होंने निधि को दिये। निर्माण के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण से अनुमति की आवश्यकता थी, जिसे प्राप्त करने में बहुत समय लगा। बिना आज्ञा निर्माण कैसे हो, यह एक बहुत बड़ी जटिल समस्या थी। कर्मशील साध्वी मृगावती जी महाराज निष्कर्मण्य न रह सके। विलम्ब का आभास कर उन्होंने उत्तर प्रदेश और हरियाणा तथा पंजाब का परिभ्रमण करने का निश्चय किया और 3 वर्ष इसी प्रवास में बिताये। दुर्भाग्य से हमारे आद्य संरक्षक सेठ कस्तूर भाई जी का भी इसी अवधि में देहावसान हो गया। अतः निधि का मार्गदर्शक उठ गया। आवेदन देने पर भी प्राधिकरण सहमत नहीं हो रहा था। श्रीमती विद्यावहन शाह एवं श्री कान्ति लाल घिया ने काफी यत्न किये। श्रीमती निर्मला बहन मदान तथा चौ. प्रेम सिंह पार्षद योगेन्द्र जैन कौंसलर एवं अन्त में कई अन्य प्रभावशाली व्यक्ति भी जोर लगाते रहे। श्री कवर लाल जी गुप्ता सांसद के आग्रह पर तत्कालीन उप राज्यपाल कोहली जी अक्तूबर 1977 में स्मारक स्थल पधारे। वे योजना एवं प्रस्तावित भवन का मंडल देख कर प्रसन्न हुए और एकत्रित जैन समाज के समक्ष उन्होंने तत्काल 15000 वर्गफुट निर्माण की अनुमति प्रदान कर दी परन्तु लिखित आदेश तो 21.1.1978 को ही जारी हो सका। स्वीकति पाकर For Private & Personal Use Only समाज गद्गद् हो गया। महत्तरा जी की प्रसन्नता का तो ठिकाना न था। परन्तु इसी बीच में निधि के एक मान्य आजीवन ट्रस्टी एवं विचारक ला. सुन्दर लाल जी का देहावसान हो जाने से कार्य के दिशा दर्शन में तनिक बाधा आई। सन् 1978 का चातुर्मास महत्तरा जी ने हिमाचल स्थित प्राचीन कांगड़ा तीर्थ के उद्धार के निमित्त वहां पहाड़ी क्षेत्र में किया और अपने तप और त्याग के बल पर भगवान आदिनाथ की प्राचीन प्रतिमा की सेवा पूजा के स्थायी अधिकार पुनः जैन समाज को पुरातत्व विभाग से वापिस दिलवाये। इतिहास के पन्नों में उनका यह कार्य स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा। वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य विजयेन्द्र दिन्न सूरि जी महाराज ने साध्वी. मृगावती जी महाराज की महान उपलब्धि पर प्रसन्न होकर उन्हें महत्तरा एवं कांगड़ातीथोंद्वरिका की उपाधियों से विभूषित किया। साथ ही वल्लभ स्मारक के कार्य को और अधिक आगे बढ़ाने के लिए महत्तरा जी को आशीर्वाद दिया। साध्वी जी महाराज पुनः जून 1979 में दिल्ली पधारे और उन्होंने स्मारक के कार्य में विशेष गति लाने के लिये संघ और समाज को प्रेरणा दी। अन्ततः 27 जुलाई 1979 को इस निधि के अध्यक्ष श्री रतनचन्द जी ने महत्तरा जी की निश्रा में भूमि पूजन तथा खनन किया। साध्वी मृगावती श्री जी म. के प्रभावशाली उपदेश से 16 लाख के बचन तुरन्त उसी सभा में प्राप्त हुये । तदुपरान्त 29 नवम्बर 1979 के शुभ दिन हजारों लोगों की उपस्थिति में मुख्य स्मारक भवन का शिलान्यास वयोवृद्ध सुश्रावक श्री खैरायतीलाल जी के कर कमलों द्वारा किया गया। इस हेतु त्रिदिवसीय विशाल महोत्सव रचा गया था। मंच को गुरु देव विजय वल्लभ सूरि जी महाराज के एक विशाल तैल चित्र से सजाया गया। शिलान्यास से कुछ ही क्षण पूर्व साध्वी जी महाराज का एक मार्मिक प्रवचन हुआ और फलस्वरूप लोगों ने 25 लाख रुपये के दान वचन लिखवा दिये तथा बहनों ने अपने आभूषण उतार कर भेंट कर दिये। बम्बई से एक स्पेशल ट्रेन द्वारा इस महोत्सव में भाग लेने के लिए 600 यात्री आये थे । शिलान्यास महोत्सव के मध्य अखिल भारतीय जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस का 24वां महा-अधिवेशन श्रध्येय दीप चंद गार्डी जी की अध्यक्षता में सफल सम्पन्न हुआ। सभी यात्रियों ने सहयोग देने का वचन दिया। कार्यकर्ताओं के साहस और मनोबल की विशेष पुष्टि मिली। स्मारक के सभी कार्यक्रम सोल्लास सम्पन्न हुए। मद्रास के कर्मठ www.jainelibrary.org

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