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जंगल में मंगलकर पत्थरों में समाहित कर सम्यग्र प्राण गुरु की वाणी को किया साकार गढ़ा स्वप्न नव। दिया हमें तीर्थ सम अवदान
ओ ! महत्तरा, ओ ! महान् फिर भी तुम रही निर्लिप्त तुम रही निराकार पद्म के पावं पत्रांक पर पड़ी स्वाती बँद शबनम अनबिधों मोती मन क्या ममत्व, क्या अधिकार
ओ ! महत्तरा, ओ ! महान् शासन हित स्व का किया अर्पण कितनों को दिखाया दर्पण चल रहे हम उसी राह प्रभु की महिला बढ़ी गस की गरिमा लड़ी ज्ञान की गंगा बन बही वत्सलता पसरी निखरी भक्ति का सागर अथाह
ओ ! महत्तरा, ओ! महान् दीपशिखा सी तम प्रोज्वल, प्रकाशित किया अन्तरमन भाव-भक्ति-विभोर हम नत हुए तव चरणों पर पूर्ण हो रही थी - चाह कि, मध्यमार्ग तम्हें लगी काल की दारुण दाह हतप्रभ सब
करमाणे करें चत्ल माणे चलें का बीच मन्त्र श्रवण करवाया तत्पर सुव्रतों का सुयश ही बना सम्बल नेत्रों में अविरल अश्रुधार
ओ ! महत्तरा ओ! महान् आर्य प्रवर के आभी बचन इन्द्रदिन्न के गुरू गम्भीर स्वर जगत चन्द्र नित्यानन्द उत्साह की नयी लहर बल्लभ है सबको आत्मन् वासुपूज्य चहरिभ दुग्धधवल अधनिमिलित राजीव नयन भान्ति विमल चन्द्रमणी की ज्योति प्रखर कमल का वरदहस्थ सब पर घेरे दिल्ली को परा परिसर दे रहा बरदान ओ ! महत्तरा, ओ ! महान् यमना के तट बन्ध तोड़ उमड़ रहा श्रावकों का समह शान्त विनयावत नहीं कहीं कोई हह वल्लभ का स्मारक बना शतदल खिला कमल अमर यह अवदान ओ ! महत्तरा, ओ! महान्
-पन्नालाल नाहटा
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'शासन हित स्व का किया अर्पण
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