________________
22
चेतना के स्वर
गणि नित्यानंद विजय
वृक्ष कबहुँ नहि फल भरवै नदी न सञ्चै नीर। परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर साधु की सात्विक प्रवृत्ति का आधार उसकी हार्दिक भावकुता एवं निर्मलता होती है। दुखी जनों की दुखानुभूति का सम्प्रेषण सन्तपुरुष को सहज ही जाता है। उसमें कहीं कोई बाधा नहीं होती, मार्ग के समस्त बाधा नहीं होती, मार्ग समस्त बाधक तत्व सतोगुण के कारण नष्ट हो चुके होते हैं। ऐसे में सज्जन अपने करुणा, वात्सल्य और सहानुभूतिजन्य विचारों को विभिन्न विचारों को विभिन्न योजनाओं के माध्यम से कार्यरूप में परिणित करते हैं, तब वे हर क्षण मानव मात्र के कल्याणकी बात सोच पाते हैं, अन्यथा आज के इस मशीनी युग में मानव मशीनों की तरह इतना हृदयविहीन बन चुका है कि उसे दूसरों की कोई अनुभूति होती ही नहीं। यही कारण है कि जब भी किसी महापुरुष ने अपने असीम लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग को तैयार करने का प्रयत्न किया तो उस दौरान वह समाज के अधिकांश भाग द्वारा उपेक्षा, अपमान और अनादर सहता रहा। जीसस, मीरा, तुलसी, सुकरात आदि अनेकों इसके उदाहरण हैं। वस्तुतः होता यह है कि महात्माओं में दूसरों के कष्टों की अनुभूति के साथ-साथ एक ऐसी अनन्त दृढ़ता होती है कि वे अपने लक्ष्य से जरा भी नहीं डिगते
Jain Education international
चाहे उनके प्राण ही क्यों न चले जाएं, प्राणों की उन्हें कोई परवाह नहीं होती। वे शरीर की क्षणिकता और नश्वरता से परिचित होते हैं, इसलिए प्रत्येक पल को बहुमूल्य मानकर अहर्निश लक्ष्य साधन करते हैं।
भारत भूमि सदैव से ही ऋषियों की, मुनियों की एवं महापुरुषों की धरती रही है। लोकोपकारी महात्माओं का जीवन परोपकार के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो हम पायेंगे कि प्रभु महावीर और गौतम इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। उन्होंने अन्य सिद्धांतों के साथ अहिंसा का सिद्धान्त समन्वित कर समाज सुधार के कार्यों में लगे जहाँ एक और तप, त्याग, संयम, क्षमा, दया और निःस्पृहता जैसे गुणों से स्वयं का जीवन उज्जवल, उच्च एवं प्राञ्जल रखा वहीं दूसरी ओर सामाजिक बुराईयों का अहिंसा के अमोघ अस्त्र से छेदन भी किया। परिणामतः समाज आन्दोलित हो उठा, एक क्रान्ति आ गई धर्म की, सामाजिक परिष्कार की धर्मग्रन्थ ही नहीं अपितु इतिहास साक्षी है कि प्राचीन काल से चली आ रही जैन संस्कृति में प्रभु महावीर का उदय एक ऐसे सहस्त्ररश्मि के रूप में हुआ कि जिसकी रश्मियों से आज भी हमारा पथ आलोकित है और उनके अनुयायी उनके बताए मार्गों पर चल रहें हैं। इन अनुगामियों में कई उद्भट विद्वान कई महातपस्वी कई विचारक, कई आगम-संशोधक तो कई महाज्ञानी हुए किन्तु इस तप, ज्ञान और विचारों की सीमा से भी आगे जाकर प्रभु महावीर ने जिस स्व के साथ पर कल्याण की, समाज सुधारक की बात की थी और तद्वत आचारण करने की बात कही थी, उन संयमी, समाजसुधारकों की परम्परा कोई बहुत लम्बी नहीं है।
इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण, गुरुवल्लभ का जीवन और उनका आचरण है। गुरु वल्लभ एक साधु की समस्त मर्यादाओं का, नियमों का पालन कर आत्मा कल्याण करते रहे और साथ ही सामयिक चेतना का पाठ पढ़ाते रहे। उनके जीवन को लेकर विभिन्न विद्वानों, विचारकों, चितकों, मुनियों द्वारा लेख लिखे गए, शोध किए गए, पुस्तकें लिखी गई फिर भी ऐसा लगता है जैसे उनका आकलन अधूरा हो, अभी जैसे बहुत कुछ समझना शेष हो। उनका जीवन पढ़ने पर ऐसा विचार आता है कि क्या सचमुच कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य के प्रति इतना दृढ़ हो सकता है? क्या सचमुच मानव इतनी अगाध क्षमता और योग्यता वाला हो सकता है ? जिसके जीवन का एक-एक पल, जिसके आचार-विचारों का
Poo Private & Personal Use Only
एक-एक कण अनुकरणीय हो। मैं अपनी अल्पमति से विचार कर गुरु वल्लभ का एक स्वरूप बनाता हूँ जो शिक्षा प्रेमी का है, जो त्यागी का है, जो सच्चे वीतराग के उपासक का है, जो धर्म और जाति की सीमा से परे जाकर सबका कल्याण चाहने वाले का है किंतु, थोड़ी ही देर बाद उनके जीवन पर, उनके विचारों और सिद्धान्तों पर गहराई से विचार करता हूं तो लगता है कि गुरुदेव ने.. मानव मात्र की पीड़ा को पढ़ा था, दर्द को पहचाना था उसे अपने विचारों में समेटा था, चाहे समर्थक हो या विरोधी सबको एक ही पुस्तक से पाठ पढ़ाया था और वह पुस्तक थी अहिंसा की, प्रेम की, दया की, प्राणीमात्र के प्रति सद्भावना और समन्वय की। यही कारण है कि गुरुदेव जिस गांव या नगर में जाते लोगों के बीच, परिवारों के बीच, समुदायों के बीच फैले मनोमालिन्य और झगड़ों को दूर करने का प्रयास करते और सफल होते। वे जानते थे ये अज्ञान हैं, वे जानते थे ये सभी व्यर्थ ही ईश्वर प्रदत्त अद्भुत शक्तियों का अपव्यय कर रहे हैं, थोड़ी सी समझदारी में इस ऊर्जा का आत्मोत्थान में सदुपयोग किया जा सकता है। इसलिये गुरु बल्लभ जब तक जीवित रहे ज्ञान वृक्षों का रोपण करते रहे जिससे मानव के मन में प्रारंभ से ही सुंस्कारों के बीज अंकुरित हों, वह स्वयं को सुधारे धीरे-धीरे समाज में स्वयं सुधार होगा। आज गुरुदेव नहीं है किंतु उनके किये गए मानव कल्याण के कार्यों से चेतना के स्वर प्रस्फुटित हो रहे हैं और हम सभी को प्रेरित कर रहे हैं कि जो कार्य गुरुदेव ने किये उन्हें हम आगे बढ़ाएँ, जो समयाभाव या आयुष्यपूर्ण हो जाने के कारण अधूरे रह गए उन्हें पूरा करें।
वल्लभ स्मारक अज्ञान तिमिर तरणि के ज्ञान गम्भीर व्यक्तित्व का उपयुक्त स्मृतिचिन्ह हैं। उनके विचारों की चेतना सदैव उनके भक्तों को सक्रिय बनाए रखेगी। आज स्वर्गस्थ, गुरुदेव की आत्मा प्रभु के मंदिर, भोगीलाल नेहरचंद शोधपीठ, साधु-साध्वी के उपासना गृह, औषधशाला, विद्यालय आदि से समृद्ध इस पूरे परिसर को देखकर अवश्य आह्लादित हो रही। होगी, और विचारती होगी कि ये मेरे भक्त यदि आज अपने सुप्रयासों से इस लक्ष्य तक पहुँचे हैं तो एकन एक दिन अवश्य उस पीड़ा का भी अनुभव करेंगे जो मैंने मध्यम और दीन परिवारों के उत्थान के लिए व्यक्त की थी, ये एक न एक दिन अवश्य मेरे जैन विश्वविद्यालय के स्वप्न को साकार करेंगे।
www.jainalibrary