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महावीर कहते हैं, जैसे-जैसे पर्दे उठते हैं, वैसे-वैसे तुम्हें दूसरे में आत्मा दिखाई पड़नी शुरू होती है। एक ऐसी घड़ी आती है, जब पत्थर में भी आत्मा दिखाई पड़नी शुरू होती है।
तेजोलेश्या से क्रांतिकारी परिवर्तन शुरू होता है। पहली तीन लेश्याएं अधर्म की बाद की तीन लेश्याएं धर्म की-तेजो, पद्म और शुक्ल । तेजोलेश्या के साथ ही तुम्हारे भीतरी पहली झलकें आनी शुरू होती हैं।
ये रंगों के आधार पर पर्दों के नाम रखे महावीर ने यह जीवन का इंद्रधनुष है। है तो रंग एक ही वैज्ञानिक उसे कहते हैं श्वेत। बाकी सब रंग श्वेत रंग के ही खंड हैं। इसलिए प्रिज्म के कांच के टुकड़े से जब सूरज की किरण गुजरती है तो सात रंग में बंट जाती है। या तुमने कभी स्कूल में बच्चों के समझाने के लिए देखा हो तो एक चाक पर सात रंग लगा देते हैं। चाक को जोर से घुमाते हैं तो सातों रंग खो जाते हैं, सफेद रंग रह जाता है। सफेद रंग सातों रंगों का जोड़ है या सातों रंग सफेद रंग से ही जन्मते हैं। इंद्रधनुष पैदा होता है हवा में लटके हुए जलकणों के कारण जलकण लटका है हवा में, सूरज की किरण निकलती है, टूट जाती है सात हिस्सों में सूरज की किरण सफेद है। लेकिन महावीर कहते हैं, सफेद के भी पार जाना है। अधर्म के पार तो जाना ही है, धर्म के भी पार जाना है। अधर्म तो बांध ही लेता है, धर्म भी बांध लेता है। धर्म का उपयोग करो अधर्म से मुक्त होने के लिए। कांटे को कांटे से निकाल लो, फिर दोनों काटों को फेंक देना। फिर दूसरे कांटे को भी सम्हालकर रखने की कोई जरूरत नहीं है। बीमारी है, औषधि ले लो। बीमारी समाप्त हो, फिर औषधि को भी कचरे घर में डाल आना। फिर बीमारी के बाद औषधि ने छाती से लगाए मत घूमना। वह केवल इलाज थी। उसका उपयोग संक्रमण के लिए था।
जैसे-जैसे शुभ लेश्याओं का जन्म होता है, जैसे-जैसे आदमी श्वेत की तरफ बढ़ता है, वैसे-वैसे दृष्टि की गहराई बढ़ती है। वैसे-वैसे दूसरों में भी परमात्मा की झलक मिलती है।
'श्वेत लेश्या की आखिरी घड़ी में जब पूर्णिमा का प्रकाश जैसा भीतर हो जाता है तो पत्थर में भी परमात्मा दिखाई पड़ता है। इसी अनुभव से महावीर की अहिंसा का जन्म हुआ।
महावीर जो कहानी कहे हैं.... महावीर ने बहुत कम बोधकथाओं का उपयोग किया है। उन बहुत कम बोधकथाओं में एक यह है:
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"छह पथिक थे। जंगल के बीच जाने पर भटक गए। भूख लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा एक वृक्ष दिखाई दिया। फल खाने की इच्छा हुई। मन ही मन विचार करने लगे। पहले ने सोचा, पेड़ को जड़मूल से काटकर इसके फल खाए जाएं।'
महावीर कहते हैं, यह कृष्ण लेश्या में दबा हुआ आदमी है। यह अपने छोटे से सुख के लिए, क्षणभंगुर सुख के लिए भूख थोड़ी देर के लिए मिटेगी, फिर लौट आएगी। भूख सदा के लिए तो मिटती नहीं। लेकिन यह पूरे वृक्ष को मिटा देने को आतुर है। इसे वृक्ष की भी आत्मा है, वृक्ष को भी भूख लगती है, प्यास लगती है, वृक्ष को भी सुख और दुख होता है, इसकी कोई प्रतीति नहीं है।
यह आदमी अंधा है, जिसे वृक्ष में कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। सिर्फ अपनी भूख को तृप्त करने का उपाय दिखाई पड़ रहा है। और अपनी भूख की तृप्ति के लिए, जो फिर लौट आने वाली है, कोई शाश्वत तृप्ति हो जाने वाली नहीं है, वह इस वृक्ष को जड़ मूल से काट देने के लिए उत्सुक हो गया। यह आदमी बिलकुल अंधा है। ऐसे आदमी तुम्हें सब तरफ स्वयं के भीतर भी मिलेगा।
कितनी बार नहीं तुमने अपने छोटे-से सुख के लिए दूसरे को विनष्ट तक कर देने की योजना नहीं बना ली। कितनी बार जो मिलनेवाला था वह ना कुछ था, लेकिन तुमने दूसरे की हत्या कर दी कम से कम हत्या का विचार किया। जमीन के लिए, दो इंच जमीन के लिए पद के लिए तुमने प्रतिस्पर्धा की। दूसरे की गर्दन को काट देना चाहा। इसकी बिलकुल भी चिता न की, कि जो मिलेगा वह ना कुछ है और जो तुम विनष्ट कर रहे हो, उसे बनाना तुम्हारे हाथ में नहीं तुम एक जीवन की समाप्ति कर रहे हो। एक परम घटना के विनाश का कारण बन रहे हो। एक दीया बुझा रहे हो। एक तुम जैसा ही प्राणवन्त, तुम जैसा ही परमात्मा को सम्हाले हुए कोई चल रहा है, तुम उस अवसर को विनष्ट कर रहे हो। और तुम्हें कुछ भी मिलनेवाला नहीं। तुम्हें जो मिलेगा, वह थोड़ी-सी क्षणभंगुर की तृप्ति है। घड़ी भर बाद फिर भूख लग जाएगी।
कृष्ण लेश्या से भरा आदमी महत हिंसा से भरा होता है। जब भी तुम्हारे मन में अपने सुख के लिए दूसरे को दूख तक की तैयारी हो जाए तो तत्क्षण समझ लेना, कृष्ण लेश्या में दबे हो । पर्दा पड़ा है। इस पर्दे को अगर तुम बार-बार भोजन दिए जाओगे तो यह मजबूत होता चला जाएगा।
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