Book Title: Atmavallabh
Author(s): Jagatchandravijay, Nityanandvijay
Publisher: Atmavallabh Sanskruti Mandir

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Page 174
________________ जाति की सबसे श्रेष्ठ एवं अनुपम आध्यात्मिक निधि है। वेदों में स्तुति की गई है। योगी नित्य इनकी पूजा करते हैं। जैन योग साधना के मार्ग अनन्त हैं। भक्ति-योग, ज्ञानयोग, परम्परानसार योग के आद्य प्रवर्तक प्रथम तीर्थकर भगवान कर्मयोग, राजयोग, हठयोग, ध्यानयोग, उपयोग, मन्त्रयोग, ऋषभदेव थे। महापुराण में कहा गया है कि ऋषभदेव के अनेक तपयोग, लययोग आदि योग की अनेक शाखाएं हैं। बस्ततः ये नामों में एक नाम हिरण्यगर्भ है। वैदिक पुराणों के अनुसार सभी शाखाएँ एक दूसरे की पूरक हैं। विचार करने पर ज्ञात होता भगवान ऋषभदेव भगवान विष्णु के पांचवे परन्तु प्रथम मानव है कि प्रत्येक योग में भक्ति, ज्ञान, कर्म, ध्यान आदि साधनों का अवतार थे। श्रीमद्भागवत में एक स्थल पर भगवान ऋषभदेवों न्यूनाधिक उपयोग अवश्य होता है। परन्तु साधक योगीश्वरः" कहकर भगवान ऋषभदेव की प्रथम योगीश्वर के अज्ञानान्धकार से वशीभूत होने के कारण इनके गूढ़ रहस्यों को रूप में स्तुति की गई है और अन्यत्र हिरण्यगर्भको योगविद्या का समझ नहीं पाता। यही कारण है कि किसी एक मार्ग का अनुसरण आद्यप्रवर्तककहा गया है। जैन वाङ्मय में भीभगवान ऋषभदेवकी करने वाले साधक अपने आपको दसरों से पृथक समझने लगते हिरण्यगर्भ के रूप में स्तुति की गई है। उक्त विचारों के आधार हैं। यथा-भक्तिमार्गी लोगों का हठयोगियों से अथवा ज्ञानमार्गी पर यह कहा जा सकता है कि हिरण्यगर्भ और ऋषभदेव दोनों एक लोगों का कर्मयोगियों से विरोध स्पष्ट दिखाई देता है जबकि ही व्यक्ति के दो नाम हैं जो योग के आद्य प्रवर्तक हैं। ज्ञान, भक्ति, कर्म, जप, तप, ध्यान, ज्ञान, - इन सबकी समष्टि सिन्ध घाटी की सभ्यता से प्राप्त ध्यानस्थ योगी की ही सम्पूर्ण योग हैं। प्रत्येक की स्थिति-भेद के कारण इनके नग्नावस्था और (पद्मासन) में प्राप्त मूर्ति को देखकर साधना-मार्ग में अन्तर दिखाई पड़ता है। पुरातत्ववेता यह अनुमान लगाते हैं कि उक्त मूर्ति प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की है। चूंकि भगवान शिव का स्वरूप भी भारतीय संस्कृति तीन प्रमुख धाराओं में प्रवाहित रही है- दिगम्बर (नग्न) था इसलिए कुछ विद्वान उक्त मूर्ति को भगवान वैदिक, बौद्ध एवं जैन। इन सबकी चिन्तन-पद्धति एवं मौलिक शिव की मूर्ति बताते हैं। उनके इस तथ्य से ऋषभदेव और शिव विचारधारा में भिन्नता होने से इनकी मोक्ष-प्रापक की एकाकार की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हुआ। इसी साधना-पद्धतियों में जो पार्थक्य दिखाई देता है उनकी ओर ध्यान आधार परथी रामचन्द्र दीक्षितार ने ई.3000 वर्ष पूर्वतथा उससे आकर्षित करने के लिए योग के साथ वैदिक, बौद्ध, जैन तथा अन्य भी प्राचीन भारतवर्ष में प्रचलित योग-साधना को पाशुपत सम्प्रदायों का नाम जोड़ा गया है। परिणामस्वरूप वैदिक योग, योग-साधना का प्रारम्भिक रूप माना है। उपर्युक्त मूर्ति चूंकि बौद्ध योग अथवा जैन योग आदि नाम प्रचलित हुए। योग का पद्मासन में उत्कीर्ण हैं। इसलिए कुछ विद्वान हठयोग का प्रारम्भ -अरुणा आनन्द किसी धर्म, सम्प्रदाय अथवा जाति विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं भी प्रागैतिहासिक काल से स्वीकार करते हैं। हठयोग में है। "योग" एक व्यापक शब्द है जिसमें सभी साधना-पद्धतियाँ "आदिनाथ" को हठयोग का आद्यप्रवर्तक मानते हुए उनकी स्तुति भारतीय दर्शन का मुख्य उद्देश्य मानव जीवन को अभाव समाहित हैं। की गई है। आदिनाथ "ऋषभदेव" अथवा "हिरण्यगर्भ का ही एवं सांसारिक कष्टों से मुक्ति दिलाकर शाश्वत एवं चिरन्तन योग परम्परा का प्रारम्भ कब, कहां, और किसके द्वारा ऊपर नाम है। भिन्न-भिन्न साम्प्रदायिकों ने अपने-अपने आनन्द की प्राप्ति है। सभ्यता के आदिकाल से ही मानव ने हुआ? इसके सम्बन्ध में प्रामाणिक रूप से कछ कहना सम्भव मतानुसार अपने इष्टदेव को योग का आद्य प्रवर्तक मान लिया। सांसारिक विषय-वासनाओं से अपने आपको आबद्ध पाते हुए भी नहीं। योग के ऐतिहासिक परिपेक्ष्य पर विचार करने से इतना उससे निकलने का प्रयास जारी रखा है। प्राचीन कालीन ऋषियों कहा जा सकता है कि आत्म-विकास हेतु आध्यात्मिक साधना के प्राचीन काल में किसी भी विद्या का ग्रहण,धारण एवं एवं आधुनिक चिन्तकों ने समय-समय पर विविध उपायों का रूप में योग" का प्रचलन प्रागैतिहासिक काल से चला आ रहा पठन-पाठन गुरु-शिष्य-परम्परा द्वारा होता था। इसलिए अन्वेषण कर स्वानुभव द्वारा तत्वसाक्षात्कार कराने वाली है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के अवशेषों से प्राप्त ध्यानस्थ योगी ऋषि-परम्परा द्वारा ही इसका प्रचार हुआ। लेखन-परम्परा का व्यावहारिक पद्धतियों को धरातल पर उतारने का सफल प्रयास का चित्र उक्त तथ्य का पोषक है। अभाव होने से अन्य विद्याओं के समान योग विद्या भी शास्त्रबद्ध किया है। उनके द्वारा आत्म-विकास की पूर्णता और उससे प्राप्त योग के आद्य प्रवर्तक कौन थे. इस सम्बन्ध में वैदिक परम्परा न हो सकी। परिणामस्वरूप आज इसका क्रमिक व प्रामाणिक होने वाले प्रज्ञा-प्रकर्षजन्य पूर्णबोध की प्राप्ति हेतु अन्वेषित 'हिरण्यगर्भ' को योग का आद्य वक्ता मानती है। । 'महाभारत' इतिहास अनुपलब्ध है। उपायों में 'योग' एक विशिष्ट एवं अन्यतम उपाय है। 'योग' आर्य में प्राप्त उल्लेखानुसार यह द्युतिमान हिरण्यगर्भ वही हैं जिनकी योग विषयक अनेक महत्वपूर्ण प्रसंग, वेद, उपनिषद्, प्रमुख जैनाचार्यों की योगदर्शन को देन Jain Education international For Prve Lemonale Only www.janelibrary.com

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