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जो काला मण्डल है हिंसा का, अहंकार का, क्रोध का, मत्सर का, पहुंचता है। तृतीय नेत्र खुल गया। पूर्णिमा हुई। पूरा चांद कर सकोगे। मद का, वही मृत्यु का मण्डल भी है। इसका अर्थ हआ, जो काले निकला।
दो का अर्थ है, भीतर खंड-खंड बंटे हैं हम। एक मन कुछ मण्डल के साथ जी रहा है, वह जी ही नहीं रहा। वह किसी अर्थ में और जिसकी पतंजलि सहस्त्रार कहता है-सहस्रदल कहता, दूसरा मन कुछ कहता। एक मन कहता है, अभी तो भोग मरा हुआ है। उसके जीवन का उन्मेष पूरा नहीं होगा। जीवन की कमल, सातवां चक्र, बही महावीर के लिए वीतराग स्थिति है। लो। एक मन कहता है क्या रखा भोगने में? छोड़ो। एक मन लहर, तरंग, पूरी नहीं होगी-दबी-दबी, कटी-कटी, टूटी-टूटी। रंग-राग सब गया। सब लेश्याएं गई। कृष्ण लेश्या तो गई ही, कहता है, मंदिर चलो-प्रार्थना की पावनता। दूसरा मन कहता है, जैसे जीते भी वह मुर्दे की तरह ढोता रहा अपनी लाश को। कभी श्वेत लेश्या भी गई। काले पर्दे तो उठ ही गए, सफेद पर्दे भी उठ व्यर्थ समय खराब होगा। घंटे भर में कुछ रुपये कमा लेंगे। जिया नहीं नाचकर। कभी उसके जीवन में बसंत नहीं आया। गए। पर्दे ही न रहे। परमात्मा बेपर्दा हुआ, नग्न हुआ, दिगंबर बाजार ही चलो। प्रार्थना बूढ़ों के लिए है, अंत में कर लेंगे। मरते कभी नई कॉपलें नहीं फूटीं। पुराना ही होता रहा। जन्म के बाद हुआ। आकाश के अतिरिक्त और कोई ओढ़नी न रही, ऐसा वक्त कर लेंगे। इतनी जल्दी क्या है? अभी कोई मरे नहीं जाते। बस, मरता ही रहा। निर्दोष हुआ।
तुम्हें कभी ख्याल है? कि मन कभी भी निर्णित नहीं होता। काला पर्दा पड़ा ही आदमी के चित्त पर तो जीवन संभव भी तो जो छह चक्र पतंजलि के, वे ही छह लेश्याएं हैं महावीर अनिर्णय मन का स्वभाव है। छोटी-छोटी बातों में अनिर्णीत होता नहीं है। जीवन की किरण हृदय तक पहुंच पाए, इसके लिए खुले की। पहले तीन चक्र सांसारिक है। अधिकतर लोग पहले तीन है। कौन-सा कपड़ा आज पहनना है, इसी के लिए मन अनिर्णित द्वार चाहिएं। और जीवन का उल्लास तुम्हें भी उल्लसित कर सके चक्रों में ही जीते और मर जाते है। चौथा, पांचवां और छठवां चक्र हो जाता है। किस फिल्म को देखने जाना, इसीलिए अनिर्णित हो
और जीवन का मृत्यू तुम्हें भी छू पाए इसके लिए बीच में कोई भी धर्म में प्रवेश है। चौथा चक्र है हृदय, पांचवां कंठ, छठवां आज्ञा। जाता है। जाना कि नहीं जाना इसी के लिए आदमी सोचने लगता पर्दा नहीं चाहिए। बेपर्दा होना है।
हृदय से धर्म की शुरूआत होती है। हृदय यानी प्रेम। हृदय यानी है, डावांडोल होने लगता है जैसे तुम्हारे भीतर तो आदमी है, एक तुम जब बिलकुल नग्न, खुले आकाश को अपने भीतर करुणा। हृदय यानी दया। हृदय के अंकुरण के साथ ही धर्म की नहीं। निमंत्रण देते हो, तभी परमात्मा भी तुम्हारे भीतर आता है। शुरूआत होती है। जिसको हृदय चक्र कहा है पतंजलि के शास्त्र आज्ञाचक्र पर आकर तुम्हारा द्वंद्व समाप्त होता है, तुम एक
आता है इक रोज मधुवन में जब बसन्त में, वही तेजोलेश्या है। हृदयवान व्यक्ति के जीवन में एक तेज बनते हो। इसलिए पतंजलि ने उसे आज्ञाचक्र कहा क्योंकि तुम तृण-तृण हंस उठता है, कली-कली खिल जाती है। प्रगट होता है।
पहली दफा स्वामी बनते, मालिक बनते। जब तक आज्ञाचक्र न कोयल के स्वर में भर जाती है नई कूक कोंपल पेड़ों पर पायल नई बजाती है।
शुक्ल लेश्या-योग की तृतीय आंख, या तंत्र का शिवनेत्र खुल जाए तब तक कोई अपना मालिक नहीं।
महावीर की शुक्ल लेश्या है। जैसे तुम्हारे भीतर इन छह के बीच महावीर कहते हैं, छठवें केंद्र पर शक्ल लेश्या पूर्ण होती है। लेकिन कृष्ण लेश्या में दबे हुए आदमी के जीवन में ऐसा
अमावस और पूर्णिमा का अंतर है। जब तुम्हारे जीवन की ऊर्जा पूर्णिमा की चांदनी फैल जाती है तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व पर। कभी नहीं होता। बसंत आता ही नहीं। कोयल कूकती ही नहीं।
आज्ञाचक्र पर आकर ठहरती है तो तुम्हारा सारा अन्तर्लोक एक पूर्णिमा की चांदनी फैल जाने के लिए तुम्हें अंतर्यात्रा पर कोंपलें पायल नहीं बजाती। ऐसा आदमी नाममात्र को जीता
प्रभा से मण्डित हो जाता है। एक प्रकाश फैल जाता है। तम पहली जाना होगा। और जो पर्दे तुम्हें बाहर रोकते हैं, उन्हें धीरे-धीरे है-मिनिमम। श्वास लेता है कहना चाहिए, जीता है कहना ठीक
दफा जागरुक होते हो। तुम पहली दफा ध्यान को उपलब्ध होते छोड़ना होगा। नहीं। गुजार देता है कहना चाहिए।
कृष्ण, नील, कापोत, इन्हें छोड़ो। लेश्याएं छह प्रकार की हैं। कृष्ण, नीले, कापोत, ये तीन इसलिए पतंजलि ने उसे आज्ञाचक्र कहा। आज्ञाचक्र का लोभ, मोह, घृणा, क्रोध, अहंकार, ईष्या छोड़ो। प्रेम, दया, अधर्म लेश्याएं महावीर ने कहीं।
अर्थ है कि इस घड़ी में तुम जो कहोगे, कहते ही तो जाएगा। सहानुभूति जगाओ। परिग्रह छोड़ो, अपरिग्रह जगाओ। कृपणता पतंजलि के हिसाब में...पतंजलि ने मनुष्यों के सात चक्रों का तम्हारी आज्ञा तम्हारे व्यक्तित्व के लिए सहज स्वीकृत हो छाड़ा, बटना साखा। मागा मतादा
तम्हारी आजा तम्हारे व्यक्तित्व के लिए सहज स्वीकत हो छोड़ो, बंटना सीखो। मांगो मत; दो। और अंतर्यात्रा शुरू होगी। वर्णन किया। ये तीन लेश्याएं महावीर की और पतंजलि के जाएगी। इतनी जागरुकता में जो भी कहा जाएगा, जो भी निर्णय
चीजों को मत पकड़ो। चीजों का मूल्य नहीं है। चीजों को तान निम्न चक्र एक हा अथ रखते हैं। ये एक ही तथ्य को प्रगट लिया जाएगा, वह तत्क्षण परा होने लगेगा। क्योंकि अब कोई अपना मालक मत बननदा.चाजाकमालिक रहा। उपयाग करा करने की दो व्यवस्थाएं हैं।
विरोधी नहीं रहा। अब तुम एक-सूत्र हए, एक-जट हए। अब साधन की तरह साध्य मत बनाओ। तो धीरे-धीरे पर्दे ट्टते हैं। जिसको पतंजलि मूलाधार कहता है-जो व्यक्ति मूलाधार भीतर दो आंखें न रहीं, एक आंख हुई। दो थीं तो द्वंद्व था। एक कुछ
अगर ऐसा न किया तो जीवन में सब तो पालोगे, लेकिन जो में जीता है, वह कृष्ण लेश्या में जीता है। मूलाधार में जीने वाला कहती, दसरी कछ कहती। यही अर्थ है यह उस प्रतीक पाने योग्य था, बस उसी से वाचत रह जाआग। व्यक्ति अंधकार में जीता है, अमावस में जीता है। छठवां चक्र है, का-तृतीय नेत्र का। अब एक आंख हुई। तुम एक-दृष्टि हुए। वह कृष्ण लेश्या जब तक न हटेगी, काला पर्दा पड़ा रहेगा। आज्ञाचक्र है। जो व्यक्ति आज्ञाचक्र में पहुंच जाता है, वह ठीक जीसस ने अपने शिष्यों को कहा है, जब तक तुम्हारी दो तुम जाओगे भीतर तो तुम काला ही पाओगे। अक्सर तुम भीतर वहीं पहुंच गया, जो महावीर की परिभाषा में शुक्ल लेश्या में आंखें एक बन जाए, तब तक तुम मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश न आंख बंद करोगे, तो या तो विचारों का ही ऊहापोह मचा रहेगा।
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