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जैन परम्परा समन्वयवादी दृष्टिकोण की पक्षधर रही है और की सिद्धि के लिए ही हठयोग का उपदेश दिया गया है। उसके के अनुरूप जैनतत्वज्ञान और जैन आचार के समन्वित रूप के अनेकान्तवाद उसका मूल सिद्धान्त है। अतः यह कहना अनुचित उक्त कथन से सिद्ध होता है कि राजयोग और हठयोग एक दूसरे आधार पर जैनयोग का स्वतन्त्र एवं विशिष्ट स्वरूप प्रस्तुत करते न होगा कि समन्वयात्मक, उदार एवं व्यक्ति दृष्टिकोण आचार्य के पूरक हैं। हरिभद्र को जैन परम्परा की अनेकान्त दृष्टि से उत्तराधिकार में 11वीं शती में राजयोग (अष्टांगयोग), हठयोग और तन्त्रयोग आचार्य हरिभद्र की समन्वयात्मक शैली का मिले थे। परन्तु उन्होंने जिस सूक्ष्मता एवं सूझबूझ से इन गुणों को आदि योग प्रणालियों का प्राधान्य था। स्वाभाविक है कि इस युग अनुकरणकरनेवाले आचार्यों में प्रमुख स्थान उपाध्याय अपने जीवन में आत्मसात किया उसका उदाहरण जैन अथवा के आचार्यों पर इस प्रक्रिया का प्रभाव पड़ा हो। दिगम्बर जैन यशोविजय (18वीं शती) का है। उनके समय में योग-प्रणालियों जेनेतर किसी भी परम्परा में नहीं मिलता।
परम्परा के प्रतिनिधि आचार्य शुभचन्द्र (11वीं शती) के समक्ष की विविधता में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हो रही थी तथा उन्होंने प्रत्येक भारतीय दर्शन को परमसत्य का अंश पतञ्जलि का योगसूत्र, राजयोग, हठयोग, तन्त्रयोग तथा साम्प्रदायिक भेद भी चरम सीमा को छू रहे थे। दर्शन एवं चिन्तन बताकर उन सभी दर्शनों की परस्पर दूरी को मिटाने का प्रयास हारिभद्रीय योग साहित्य उपलब्ध था। अतः उन्होंने आचार्य के क्षेत्र में भीपरस्पर खंडन-मंडन की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही थी। किया है। उनके अभिमतानुसार भिन्न-भिन्न शब्दों में ग्रथित हरिभद्र के समन्वयात्मक दृष्टिकोण के अनुसार जैनयोग, इन विषम परिस्थितियों में उपाध्याय यशोविजय ने आचार्य सभी ग्रन्थ एक ही लक्ष्य व परमतत्वका प्रतिपादन करते हैं। पातंजल योग, हठयोग एवं तन्त्रयोग का समन्वयात्मक एवं हरिभद्र द्वारा प्रवर्तित चिन्तन-परम्परा को आगे बढ़ाते हुए जैन इसलिए सत्य के गवेषक और साधना के पथिक को पूर्वाग्रहों से व्यापक स्वरूप जनता के समक्ष रखा। उन्होंने अपने एकमात्र योग साधना का व्यापक व विस्तृत निरूपण किया। उनके द्वारा मुक्त होकर विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा करनी चाहिए तथा ग्रन्थ "ज्ञानार्णव'' में पातञ्जलयोग में निर्दिष्ट आठ योगांगों के प्रसूत योग-साहित्य मौलिक और आगमिक परम्परा से सम्बद्ध उनमें से जो युक्तिसंगत लगे उसे स्वीकार कर लेना चाहिये। क्रमानुसार श्रमणाचार का जैन शैली के अनुरूप वर्णन किया है। होने के साथ-साथ तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक दृष्टिकोण वाले अपनी इस उदार समन्वयात्मक दृष्टि के आधार पर उन्होंने जैन उनके उक्त निरूपण में आसन तथा प्राणायाम से सम्बन्धित अध्येताओं के लिए भी नवीनतम एवं उपयोगी सामग्री प्रस्तुत योग के क्षेत्र में उद्भावक के रूप में प्रवेश किया। उन्होंने अपने अनेक महत्वपूर्ण विषयों का प्रतिपादन हुआ है। चूंकि मुनिचर्या में करता है। जिस प्रकार सूत्र शैली में निबद्ध महर्षि पतञ्जलि कृत पूर्ववर्ती योग विषयक विचारों में प्रचलित आगम शैली की ध्यान को विशेष स्थान प्राप्त है इसलिए "ज्ञानार्णव' में भी ध्यान योगसूत्रों के गढ़ अर्थों को समझने के लिए महर्षि व्यास, भोज, प्रधानता को तत्कालीन परिस्थतियों एवं लोकरुचि के अनुरूप विषयक सामग्री प्रचर मात्रा में वर्णित है। आचार्य शुभचन्द्र ने वाचस्पति मिथ, विज्ञान-भिक्ष आदि अनेक आचार्यों ने भाष्य एवं परिवर्तित किया तथा जैन योग का एक अभिनव, विविधलक्षी एवं हठयोग एवं तन्त्रयोग में प्रचलित पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और टीकाओं की रचना की, उसी प्रकार उपाध्याय यशोविजय ने भी समन्वित स्वरूप जनता के समक्ष रखा ताकि लोग विविध रूपातीत ध्यान का विस्तृत व स्पष्ट विवेचन किया है। पंतजलि के योगसूत्र एवं आचार्य हरिभद्र के योग-ग्रन्थों को योग-प्रणालियों के भ्रमजाल में फंसकर दिग्भ्रमित न हो सके।
समझाने के लिए अनेक व्याख्यापरक योग एवं अध्यात्मक ग्रन्थों इतना ही नहीं,उन्होंने अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा, चिन्तन पद्धति ।
आचार्य शुभचन्द्र कृत "ज्ञानार्णव" की विषय शैली श्वेताम्बर जैन परम्परा के प्रतिनिधि आचार्य हेमचन्द्र (12वीं शती) कत
की रचना की।इनके योग-ग्रन्थों में सर्वाधिक वैशिष्ट्य यह है कि एवम् अनुभूति की अप्रतिम आभा के अनेकविद्य योगग्रन्थों की
उनमें स्पष्ट शब्दों में हठयोग का निषेध किया गया है और रचना कर जैन योग साहित्य में अभिनव यग की स्थापना की। योगशास्त्र में भी द्रष्टव्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य
चित्तकी बाह्याभिमुखी चित्तवृत्तियों को अन्तर्मुखी करने के हेमचन्द्र ने आचार्य शुभचन्द्र के विशालकाय "ज्ञानार्णव" में ही। आचार्य हरिभद्र ने जो सरणि प्रस्तुत की उसका परवर्ती जैनाचार्यों
प्रयासों पर अधिक जोर दिया गयाहै। ने सोत्साह अनुकरण किया।
कुछ मूल परिवर्तन कर उसका संक्षिप्त परिष्कृत एवं पारिमार्जित
रूप उपस्थित किया है। उनके योगशास्त्र पर भी पातञ्जल योग, सपूर्ण रूप से विचार करने पर प्रतीत होता है कि उक्त चारों 10वीं शती में कुछ परिमार्जित एवं विचारवान् योगियों ने हठयोग, तन्त्रयोग तथा जैनयोग का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित जैनाचार्य जैनयोग के आधार-स्तम्भ हैं। इन सबकी सर्वाधिक "सिद्धयोग" में त्रुटियां देखकर उसके विरुद्ध नाथ सम्प्रदाय की होता है। यहां वह ध्यातव्य है कि आचार्य शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इन चारों आचार्यों ने अपने-अपने सृष्टि की। नाथ-सम्प्रदाय के प्रथम रत्न गोरखनाथ माने जाते हैं जहां साधु की आकार भूमि पर आधारित है वहां हेमचन्द्र कृत युग के प्रतिनिधि बनकर तत्कालीन योग-साधना का ऐसा जिन्होंने सारे भारत में परिमार्जित, शुद्ध एवं सात्विक हठयोग योगशास्त्र गृहस्थ जीवन की आधार शिला पर प्रतिष्ठित है और समन्वित व व्यापक स्वरूप प्रस्तुत किया जो सामान्य जनता को का प्रचार किया और हठयोग विषयक अनेक ग्रन्थों की रचना की। उसमें गृहस्थ व साधु दोनों के आचार का निरूपण हुआ है। दोनों दिग्भ्रमित होने से बचानेतथा साम्प्रदायिकभेद-भाव समाप्त करने
हठयोग का उद्देश्य शारीरिक तथा मानसिक विकास करना ही आचार्यों के योग-ग्रन्थों को देखकरआश्चर्य होता है कि पूर्ववर्ती में उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करता है। अन्य आचार्य इन चारों का है। यद्यपि इसमें आचार-विचार की शुद्धि पर भी बल दिया गया जैन-जैनेतर योग की वर्णन शैली एवं भाषा शैली का अनुकरण किसी न किसी रूप में अनुगमन करते प्रतीत होते हैं। अनेक है तथापि आसन, मुद्रा एवं प्राणायाम द्वारा शरीर की आन्तरिक करने वाले उक्त दोनों जैनाचार्यों में अपने पूर्ववर्ती जैनाचार्य आचार्य इन्हीं चारों आचार्यों द्वारा उपस्थित विचारधारा के शुद्धि करके प्राण को सूक्ष्म बनाकर चित्तवृत्ति का निरोध करना हरिभद्र की योगविषयक अभिनव शैली का कहीं उल्लेख नहीं दृष्टिगोचर होते हैं। इसलिए जैन व जैनेतर समाज में इन्हें समाज इसका मुख्य लक्ष्य है। स्वात्माराम जी के अनुसार केवल राजयोग किया। दोनों के योग ग्रन्थ केवल हरिभद्र की समन्वयात्मक शैली प्रसिद्धि प्राप्त हुई है।