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महाभारत, गीता, योगवासिष्ठ आदि अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होते ग्रहण किया है, प्राचीन जैन वाङ्मय में, आगम-साहित्य में वह सर्वप्रथम व सर्वाग्रणी आचार्य हरिभद्र हैं, जिन्होंने पातंजल हैं। परन्तु योग को व्यवस्थित एवं सम्यक् रूप प्रदान करने का श्रेय उस अर्थ में प्रचलित नहीं था। जैनागमों "योग" शब्द कायिक, योगसूत्र तथा उसकी योग-साधनासे सम्बन्ध सभी पक्षों को ध्यान सर्वप्रथम महर्षि पतन्जलि (ईसापूर्व द्वितीय शांती) को प्राप्त हुआ वाचिक एवं मानसिक प्रवृत्तियों के अर्थ में स्वीकृत है। जहां तक में रखते हुए उसी के समकक्ष जैन योग-साधना का विविध है। उन्होंने अपनी साधना-पद्धति का मूल अपनी परम्परा में ही मोक्ष-प्राप्ति का सम्बन्ध है वह दैहिक और भौतिक आसक्ति के परिप्रेक्षों में व्यवस्थित एवंसमन्वयात्मक रूप स्वरूप प्रस्तुत स्थापित करते हुए कतिपय संशोधन कर विभिन्न उच्छेद से ही संभव है। इसलिए भारत में विशेषतः जैन परम्परा किया। साधना-पद्धतियों को सूत्रबद्ध कर 'योगशास्त्र' का रूप प्रदान में, "तप' को मोक्षोपयोगी साधना के रूप में स्वीकार किया गया। आचार्य हरिभद्र (8वीं शती) के समय में देश में योग-साधना किया जो "पातंजल योग दर्शन' के नाम से प्रसिद्ध है। आगे चलकर 'ध्यान' रूप आभ्यन्तर तप की श्रेष्ठता स्वीकार विविध रूपों में प्रचलित थी। जहां एक ओर बौद्धों द्वारा मन्त्रयान,
महर्षि पतञ्जलि कत योगग्रन्थ के प्रथम सूत्र करने पर ध्यान व समाधि की प्रक्रिया को योग" के अर्थ में तन्त्रयान और बजयान आदि की तीव्रता से प्रचार किया जा रहा था 'अथयोगानुशासनम' के आधार पर वाचस्पति मिश्र तथा मान्यता दी जाने लगी। जैनागमों में भी योग-साधना के अर्थ में वहीं दूसरी ओर सिद्धों ने "सिद्धयोग" का प्रचार करना आरम्भ विज्ञानभिक्ष आदि टीकाकार यह स्वीकार करते हैं कि पतंजलि "ध्यान" ही अधिक प्रयुक्त हुआ है। जैन परम्परा में ज्ञानयोग, कर दिया था। सामान्य जनता न तो मन्त्रों, विशेषकर वाममार्ग के योग के प्रवर्तक नहीं थे बल्कि एक संग्रहकर्ता थे। उनका मत है कि क्रियायोग एवं ध्यानयोग का सुन्दर समन्वय दृष्टिगोचर होता है, रहस्य को समझ पाने में समर्थ थी और नहीं सिद्धों के "सिद्धयोग" 'पातंजलि योग दर्शन' का विकास "हैरण्यगर्भशास्त्र" से हुआ है जो अन्यत्र दुर्लभ है। भक्ति को भी जैन-साधना में यथोचित से प्रभावित हो सकी थी। परिणामस्वरूप उनमें दुराचार व जो दभाग्य से अनपलब्ध है। पतंजलि कृत योग सूत्र में स्थान प्राप्त किया गया है। जैनतीर्थकर व प्राचीन ऋषि-मुनियों व्याभिचार फैलने लगा तत्कालीन जैन समाज की धार्मिक स्थिति चित्तवृत्ति-निरोध-हेतु वर्णित ईश्वर-प्राणिधान (भक्तियोग) की साधना में उक्त साधना के प्रयोगात्मक पक्ष का दर्शन किया भी अच्छी न थी। जैन परम्परा में जहां एक ओर चैत्यवास प्राणायाम (हठयोग) विषयवती प्रवृत्ति (तन्त्रयोग), विशोका जा सकता है।
विकसित हो चुका था वहीं स्वयं को श्रमण अथवा त्यागी कहने प्रवृत्ति (पंचशिख का सांख्य योग), वीतराग विषयता (जैनों का यद्यपि जैनागमों में यत्र-तत्र ध्यान विषयक प्रचुर-सामग्री वाले वर्ग ने मन्दिर-निर्माण, प्रतिष्ठा, जिन पूजा आदि बाह्य वैराग्य) स्वप्न आदि का अवलम्बन (बौद्धों का ध्यान योग) आदि उपलब्ध होती है किन्तु उस पर व्यवस्थित व सर्वांगीण जैन क्रिया-काण्डों को अधिक महत्व देना प्रारम्भ कर दिया था। जिन विभिन्न साधना-पद्धतियां पतंजलि के पूर्ववतीं प्रचलित होने का योग-साधना पद्धति का भवन खड़ा नहीं किया जा सकता। क्योंकि प्रतिमा और जिन-मन्दिर तथाकथित श्रमणों की ध्यानभूमि या प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। पंजलि ने पूर्ववर्ती इन योग-प्रणालियों को प्राचीन जैन-परम्परा में "पातंजल योग सूत्र" की तरह साधनाभूमि न बनकर योग-भूमि बन रहे थे। साम्प्रदायिक केवल संकलित कर योग का समन्वित रूप जनता के समक्ष रखने योग-साधना का व्यवस्थित ग्रन्थ लिखा ही नहीं गया था। योग मतभेद वर्तमान युग की भांति चरमसीमा पर था। स्वयं आचार्य का प्रयास किया है। वर्तमान में योगदर्शन से तात्पर्य पतंजलि के (अध्यात्म-साधना का आधार "आचार"है। क्योंकि आचार से हरि
(अध्यात्म-साधना) का आधार "आचार" है। क्योंकि आचार से हरिभद्र द्वारा जैन धर्म अंगीकार करने से पूर्व जिन-प्रतिमा का सूत्रों से ही माना जाता है। उक्त ग्रन्थ में दार्शनिक पक्ष (केबल ही योगी के संयम में वृद्धि होती है तथा समता का विकास होता है। उपहास करना, उनके शिष्यों का गुप्त रूप से बौद्ध मठों में जाकर तत्व-चिन्तन) की अपेक्षा साधना को आरै आत्मिक उन्नति के अतः प्राचीन ग्रन्थों में जैन योग-साधना का प्रतिपादन शिक्षा ग्रहण करना तथा रहस्य खुलने पर बौद्धाचार्यों द्वारा उनकी क्रमिक मार्ग को प्रधान रूप से प्रतिपादित किया गया है। आचार-शास्त्र (चारित्र) के रूप में हुआ है। बाद में गृहस्थ हत्या कराया जाना ये सभी घटनाएं ब्राह्मण, बौद्ध एंव जैन
जहां तक जैन परम्परा का सम्बन्ध है, इसमें सैद्धांतिक पक्ष साधक के "आचार" को गौण मान कर मुनिचर्चा पर अधिक बल परम्पराओं में विद्यमान पारस्परिक द्वेष एवं घृणाभाव, की स्पष्ट की अपेक्षा आचार पक्ष को अधिक महत्व दिया गया है। जैन दिया जाने लगा और मुनिचर्या के प्रमुख अंग "वैराग्य" व झांकी प्रस्तुत करती हैं। उस युग में धार्मिक क्षेत्र की भांति तीर्थंकरों के जो उपदेश हैं, वे साधनामय जीवन में आगे बढ़ते हुए "ध्यान' की विशेष व्याख्या करनेवाले अध्यात्मपरक ग्रन्थों का दार्शनिक क्षेत्र भी खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति से अछूता न था। उच्चतम स्थिति पर तत्वों का साक्षात्कार करने के अनन्तर ही प्रणयन प्रारम्भ हुआ।
ऐसी विषम परिस्थितियों का तत्कालीन साहित्य पर प्रभाव दिए गए हैं। इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि प्राचीन भारतीय ईसा की 7वीं शती तक जैन योग साहित्य में आगम-शता पड़ना स्वाभाविक था। यही कारण है कि इस युग में तुलनात्मक साधकों ने संकीर्णताकी सदा उपेक्षा की है और उदारपूर्वक विविध का ही प्राधान्य रहा। आगम युग से लेकर वर्तमान युग तक आगम अध्ययन की प्रवृत्ति भी प्रारम्भ हो गई थी। वैदिक एवं बौद्ध योग सम्प्रदायों में प्रचलित योग-क्षेमकारी सिद्धान्तों और साधना के साहित्य पर अनेक विद्वानों ने अपनी लेखनी चलाई, किन्तु जैन के साथ समन्वयात्मक सम्बन्ध रखना तथा उनके दृष्टिकोण को मार्गों को बिना किसी संकोच के स्वीकार करते हुए विचारों का योग-साधना केव्यवस्थित व सर्वांगीण स्वरूप को प्रस्तुत करने समक्ष रखकर अपने वैशिष्ट्य का उपस्थापन करना इस युग के आदान-प्रदान किया है। अतः स्वाभाविक है कि वर्णन-शैली में वाले स्वतन्त्र व मौलिक ग्रन्थ लिखने की परम्परा का सूत्रपात जैनाचार्यों की प्रमुख विशेषता थी। इतना ही नहीं, उनके भिन्नता होने पर भी "पातंजल योग" एवं "जैन योग" की लगभग 8-9वीं शती के आस-पास हुआ। सम्भवतः उक्त प्रयास पारिभाषिक शब्दों के समानान्तर शब्दों का अथवा उनके साधना-पद्धतियों में समानता या अविरोध हो।
पातजल योग-सूत्र, तत्सम्बद्ध साहित्य व उसकी विचारधारा की पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग भी इस युग के जैनसाहित्य में महर्षि पतंजलि ने "योग" शब्द को जिस समाधिपरक अर्थ में लोकप्रियता से प्रभावित होकर किया गया हो। उक्त ग्रन्थकारों में उपलब्ध होता है।
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