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संकल्पना के अनुसार भरहर भरत का विस्तार 526 योजन है। यह चुल्ल हेमवन्त के दक्षिण में तथा पूर्वी और पश्चिमी सागर के मध्य में है। दो बड़ी नदियों गंगा और सिन्ध तथा वैतादय पर्वतमाला से यह क्षेत्र छ: विभागों में विभाजित हो जाता है। यह सूत्र कुंडपुर के भौगोलिक की पहचान के लिए अत्यन्त सहायक सिद्ध होता है। इस भौगोलिक विवरण से पता लगता है कि भरतक्षेत्र चुल्ल हेमवन्त के दक्षिण और पूर्वी एवं पश्चिमी सागर के मध्य था। और उस भरत के दक्षिणार्द्ध भरतखण्ड में दक्षिण दिशा में ब्राह्मण कुंडपुर सन्निवेश था। ध्यानीय है कि भरतक्षेत्र की विभाजन रेखाओं में गंगा सिन्धु और वैतादय पर्वतमाला हिमवन्त या हिमालय पर्वत को माना जाता है जिसके द्वारा यह क्षेत्र छह खण्डों में विभाजित हो जाता है। अतः ऐसी स्थिति में दक्षिणार्द्ध भरतखण्ड भूभाग ही माना जा सकता है। उत्तर भाग नहीं। इसलिए दक्षिण मुंगेर के लच्छवाड़ के समीप का कंडग्राम ही भगवान महावीर का जन्म स्थान है अन्य नहीं। यही कारण है कि श्वेताम्बर जैन परम्पराप्राचीन काल से ही इसी कुंडग्राम को भगवान महावीर का जन्म स्थान मानती आ रही है।
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किन्तु श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परम्पराओं से सर्वथा भिन्न कुछ वर्तमान विदेशी तथा उनसे प्रभावित भारतीय इतिहासकारों के मत से-वैशाली ही भगवान महावीर की जन्म और पित भूमि है। ऐसा होने से कुंडग्राम को वैशाली का एक महल्ला मान लिया गया है। इस मत की स्थापना के काफी बाद वैशाली संघ नामक स्थापित संस्था के प्रयासों के फलस्वरूप सर्वप्रथम 29 अप्रैल 1948 ई. स. में कुछ जैनों ने वैशाली को जन्मभूमि मानकर वहाँ भगवान महावीर की पूजा आराधना की। डा. पी.सी.आर. चौधरी का कथन है कि यद्यपि ये लोग वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि होने का दावा करने लगे हैं भगवान तथापि विवाद रूप से वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि नहीं माना जा सकता।
खेद का विषय है कि पाविदों और इतिहासकारों ने भगवान महावीर की जन्मभूमि के संबंध में गम्भीरतापूर्वक गवेषणा नहीं की। वैशाली के पक्ष में उनकी सारी युक्तियां सारहीन एवं अटकल मात्र है। विश्लेषण करते ही इनका वास्तविक स्वरूप प्रगट हो जाता है।