Book Title: Atmavallabh
Author(s): Jagatchandravijay, Nityanandvijay
Publisher: Atmavallabh Sanskruti Mandir

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Page 157
________________ पूर्वगत आगमों की परम्परा डा० गोकुलचन्द्र जैन जैन परम्परा के अनुसार प्राचीन जैन सिद्धान्त द्वादशांग नाम से प्रसिद्ध थे। बारहवें अंग का एक भेद पूर्वगत था। इसके अन्तर्गत चौदह पूर्व समाहित थे। ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वी का स्वतन्त्र उल्लेख भी प्राप्त होता है। द्वादशांग दीर्घकाल तक गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा मौखिक रूप से चलते रहे। इस कारण इन्हें " श्रुत" के नाम से भी अभिहित किया जाता है। परम्परा के अनुसार सर्व प्रथम बारहवाँ अंग ग्रथित हुआ। उसके बाद ग्यारह अंग ग्रथित हुए। कालान्तर में द्वादशांग को मौखिक परम्परा द्वारा सुरक्षित नहीं रखा जा सका। तब उन्हें पुस्तकारूढ़ करने के उपक्रम हुए। वर्तमान दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय उक्त तथ्यों को समान रूप से स्वीकार करते हैं। दोनों परम्पराओं में द्वादशांग के नाम और उनकी विषय वस्तु की समान जानकारी प्राप्त होती है। किन्तु वर्तमान में उपलब्ध आगम और आगमिक साहित्य दोनों परम्पराओं में स्ष्ट रूप से विभक्त है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार सम्पूर्ण श्रुतज्ञान में से मात्र बारहवें अंग के कुछ अंशों का ज्ञान सुरक्षित रहा, जिसके आधार पर उसे पुस्तकारूढ़ किया गया। भगवान् महावीर के निवार्ण के लगभग एक हजार वर्ष बाद वलभी में जिन ग्यारह अंगों को पुस्तकारूढ़ किया गया, उसे दिगम्बर परम्परा मूल आगम नहीं मानती । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार बारहवाँ अंग पूर्णतया लुप्त हो गया। ग्यारह अंगों का जो ज्ञान श्रुत परम्परा द्वारा सुरक्षित रह सका, उसे वलभी में पुस्तकारूढ़ कर लिया गया। इसी परम्परा में अन्य ग्रन्थों को भी लिपिबद्ध किया गया। अध्ययन अनुसन्धान की दृष्टि से यह विशेष महत्वपूर्ण है कि बारह अंगों का ज्ञान दिगम्बर परम्परा के अनुसार सुरक्षित रहा तथा श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार ग्यारह अंगों को पुस्तकारूढ़ Jain Education International कर लिया गया। इस दृष्टि से दोनों परम्पराओं का उपलब्ध आगम और आगमिक साहित्य समग्रता में परस्पर पूरक है। इसीलिए जैन परम्परा विषयक अध्ययन-अनुसन्धान के इन समग्र स्रोतों का सामाजिक रूप में उपयोग अधिक महत्वपूर्ण है। उपर्युक्त पृष्ठभूमि के साथ हम चौदह पूर्वो की परम्परा का विचार करेगें। इस दिशा में डां० हीरालाल जैन ने षट्खंडागम की प्रस्तावना में पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने "जैन साहित्य का इतिहास पूर्व पीठिका" में तथा पं० दलसुख मालवाणिया ने "आगम युग का जैन दर्शन" पुस्तक में जो जानकारी दी है, वह पाथेय का कार्य करती है। जर्मन विद्वान् बेवर ने 'सेक्रेड लिटरेचर आफ द जैनाज" के अन्तर्गत जो जानकारी और अध्ययन प्रस्तुत किया है, उसकी उपयोगिता को पूर्णतया नकारना उपयुक्त नहीं होगा। चौदह पूर्वो के नाम दोनों जैन परम्पराओं में समान रूप से उपलब्ध हैं। दोनों में प्रत्येक पूर्व का जो परिमाण बताया गया है, वह प्रायः समान है। दोनों परम्पराओं के साहित्य में प्रत्येक पूर्व की विषय वस्तु का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। पूर्वो का मूल स्वरूप क्या रहा होगा, यह कह पाना कठिन है। जब आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भी उन्हें मूल रूप में सुरक्षित नहीं रखा जा सकता तब आज उनके यथावत् स्वरूप गठन की बात भी नहीं सोची जा सकती। किंतु पूर्वो की विषय वस्तु तथा उनके सम्बन्ध में प्राप्त विवरण के आधार पर निःसंदेह पूर्वो की विषय वस्तु के अध्ययन-अनुसन्धान के उपक्रम किये जा सकते हैं। इस प्रकार के प्रयत्नों से जैन श्रमण परम्परा की सांस्कृतिक विरासत के कई नये आयाम उजागर होंगे। श्वेताम्बर परम्परा में बारहवें अंग को शेष ग्यारह अंगों का मूल आधार माना गया है। विशेषावश्यक तथा बृहत्कल्प भाष्य में कहा गया है कि यद्यपि इस अंग में सम्पूर्ण ज्ञान का समावेश हो जाता है तथापि अल्प बुद्धि वालों को तथा स्त्रियों को वह अम्य है। For Private & Personal Use Only इसलिए उसके आधार पर शेष ग्यारह अंगों की उनके लिए रचना की गयी। यहाँ बारहवें अंग को भूतवाद कहा गया है। गाथा इस प्रकार है... 11 "जइ वि भूखावाये सव्वस्य वयोगयस्य ओहारो । निज्जूहणा तहा वि य दुम्बेहे पप्प इत्थी य।। नंदिसत्त में द्वादशांग का पर्याप्त विस्तार के साथ विवरण दिया गया है। बारहवें अंग दिट्ठिवाय के पांच भेदों के अन्तर्गत पूर्वगत के चौदह प्रकारों का विवेचन है। यहाँ पूर्वो के जो चौदह नाम गिनाए गये हैं, वही नाम सर्वत्र यथावत् उपलब्ध होते हैं। नंदिसुत्त में कहा गया है..... "पुव्वगते चौदसविहे पण्णेत्ते । तं जहा उप्पादपुव्वं । अग्गेणीयं 2 वीरियं 3 अत्थिणत्यिप्पवादं 4 पाणप्पवादं 5 सच्चपवादं 6 आदप्पवादं 7 कम्मपवादं 8 पच्चक्खाणप्पवादं 9 विष्णाणुष्पवादं 10 अवंज्ञं 11 पापाएं 12 किरियाविशालं 13 लोगविदुसयारं 141" दिगम्बर परम्परा में ।। वें अवंज्ञ के स्थान पर "कल्लाणणाम धेख” आता है। - श्वेताम्बर परम्परा में अंगों और उपांगों पर प्राकृत और संस्कृत में अनेक टीकाएं और व्याख्याएं लिखी गयीं। इनमें द्वादशांग के विषय में विस्तृत जानकारी है। हरिभद्र, अभयदेव और मलयगिरि ने अपने टीमा ग्रन्थों में चौदह पूर्वो के विषय में पर्याप्त जानकारी दी है कि यह सब लुप्त हो गया है तथा उनका विवरण परम्परा पर आधारित है। आचारांग नियुक्ति में कतिपय ग्रन्थों या उसके अध्याय विशेष जिस पूर्व के आधार पर लिखे गये हैं, उसका निम्न प्रकार विवरण दिया गया है. 1. आचारांग का निशोथ अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय आचार वस्तु के बीसवें पाहुड पर आधारित है। 2. दशवैकालिक के विभिन्न अध्ययनों का आधार इस प्रकार है. धर्मप्रज्ञप्ति आत्मप्रवाद पूर्व www.jainelibrary.org

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