Book Title: Atmavallabh
Author(s): Jagatchandravijay, Nityanandvijay
Publisher: Atmavallabh Sanskruti Mandir

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Page 160
________________ भारतीय संस्कृति में जैन धर्म - साध्वी ओंकार भी मानव जीवन एक विशिष्ट कोटि का मानव है। इसकी प्रत्येक क्षण की त्वरित वाणी से सर्वथा अगोचर है। आज का मानव घड़ी के कांटें और मशीनी गति जैसा भागता जा रहा है, सोचता नहीं कि मैं कहां जा रहा हूं। मेरी जीवनरूपी ट्रेन किस स्टेशन पर ठहरेगी। मानव की आशा, इच्छाएं समुद्र में तरंगों के समान है, उठती है। और कितने आनंदविभोर बन जाते हैं, परंतु उन तरंगों को महसूस नहीं होता की मान अभिमान से मेरा जीवन समाप्त हो जाएगा, वैसे ही मानव की आशा, इच्छाएँ नष्ट हो जाती है। मानव की आशा सूरजमुखी कमल के समान है। सूर्योदय के साथ विकास होना, और सूर्यास्त के साथ उसका नष्ट होना। फिर भी मानव यह नहीं सोचता है कि आर्य संस्कृति में मानव जन्म मिला, उसका मूल्यांकन क्या हो सकता है ? आज भारत में धर्मध्वज लहरा रहा है, उसका करण है आर्य संस्कृति संस्कृति में आचार विचार और वर्तनत्रिवेणी समागम हुआ है। भारतीय संस्कृति आचार को प्रदान मानती है। आचार और आहारशुद्धि से विचारशुद्धि होती है और विचारशुद्धि से जीवन को विकासदृष्टि मिलती है, इसलिये भारतीय संस्कृति में जैन धर्म मंगलकारी है। आर्यावर्त की एक भूमि में जो सात्विक अणुओं की प्राधान्यता है, वह सात्विकता अन्य देशों की भूमि में शायद नहीं होगी। भारत में अनेक धर्म हैं, उनमें जैन धर्म प्राचीन धर्म है। जैना की साहित्यकला, वास्तुकला, स्थापत्यकला आदि कलाओं से जैन Pain Education International धर्म की प्राचीनता का दर्शन होता है। धर्मद्वारा समाज में नैतिक, सामाजिक या सांस्कृतिक विकास का मूल्यांकन करने पर ही उसकी प्राचीनता श्रेष्ठ मानी जाती है। विश्व में तमाम धर्म का मूल है आत्मा और परमात्मा । विश्व में कोई-कोई धर्म आत्मा के साथ ईश्वरवाद को मानते हैं। ईश्वरवाद याने ईश्वर, भगवान को ही कर्ता-धर्ता और हर्ता मानना ईश्वर को कर्ता मानने वाले कहते हैं कि विश्व में जब धर्म का नाश होता है तब ईश्वर पृथ्वी का संरक्षण करने के लिये पृथ्वी ऊपर जन्म लेकर दुर्जनों का नाश करता है यह प्रथम परंपरा है। अन्य परम्परा है जो कर्म को कर्त्ता भोक्ता मानता है। ईश्वर को कर्त्ता, हर्ता नहीं मानते है उसको निरीश्वरवादी कहते हैं, यह परम्परा भारत देश में ही है। इसी भारत देश में शील, प्रतिभा और संस्कार से विश्व में लोककल्याण परायण ऐसे तीर्थकरो, चक्रवर्तियों, वासुदेवों, प्रतिवासुदेवों, बलदेवों आदि महान विभूतियों का सृजन हुआ है, जिन्होंने मानव संस्कृति के विकास में और धर्मनीति को विस्तृत करने की प्रेरणा दी। भारत के ऊपर बाहरी आक्रमण बहुत हुए लेकिन महान विभूतियों के भाग्योदय से तथा भारत की धार्मिक संस्कृति के कारण उसके ऊपर कोई भी प्रत्याघात नहीं हुआ। भारत देश आर्थिक संपत्ति की अपेक्षा से और वैज्ञानिक अपेक्षा से अन्य देशों से पीछे है, लेकिन धार्मिक For Private Personal Use Only संपत्ति और धार्मिक संस्कृति में अन्य देशों से अग्रसर है। उसमें भी जैन धर्म की सांस्कृतिक संपत्ति अखूट, अमूल्य, अलौकिक है। जैनधर्म परम्परागत धर्म जैन धर्म कोई प्रस्थापित या व्यक्तिवाचक धर्म नहीं है, अपितु गुणवाचक धर्म है। मुहम्मद पैगम्बर के नाम से इस्लाम धर्म, ईसा के नाम के क्रिश्चयन धर्म, बुद्धि के नाम से बौद्ध धर्म प्रचलित हुआ, लेकिन जैन धर्म किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम से प्रस्थापित नहीं हुआ है। "जैन" शब्द की व्युत्पत्ति जिन शब्द से हुई है। जिन - जिसने राग-द्वेष पर संपूर्ण विजय प्राप्त की हो उनको जिन कहते हैं, उनके अनुयायी जैन कहलाते हैं। इसी कारण से जैन धर्म परम्परागत धर्म है। प्रत्येक मानव धर्म की साधना से आत्मा का संपूर्ण विकास करके वीतरागता को प्राप्त कर सकता है, जैन धर्म स्वतंत्र धर्म है। जैन धर्म वैज्ञानिक धर्म है, वैज्ञानिक धर्म हम इसलिये कहते हैं की जो खोज वैज्ञानिकों ने आज की उसे प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा भगवान महावीर ने अनेक वर्षों पहले ही कहा था और पदार्थों की गहनता, सूक्ष्मता समतायी थी, करोड़ों के खर्चे से जिस अणुबम की शोध वैज्ञानिकों ने कर ली अणुबम को ज्ञानियों ने अणु का समूह बताया है, अणुबम से विश्व का कोई कल्याण नहीं हुआ, लेकिन विनाश हुआ है। जैन धर्म पृथ्वी, पानी, वनस्पति आदि एकेन्द्रिय को सजीव कहा है। विज्ञान भी पानी में और वनस्पति में जीवसिद्धि बतायी है, सर जगदीशचंद्र बोस ने भी इस बात को सिद्ध कर बतायी है। जैन धर्म को श्रमण संस्कृति के नाम से सम्बोधित किया है। श्रमण याने श्रम, समता और विकारों का शामन जिस संस्कृति में किया जाता है उसे श्रमण संस्कृति कहते है। हिन्दु संस्कृति में ईश्वर के 24 अवतार मानते हैं वैसे ही जैन संस्कृति में 24 तीर्थकर होते हैं। भगवान महावीर के समय में निग्रंथ प्रवचन कहते हैं, पार्श्वनाथ भगवान के समय में श्रमण धर्म, भगवान नेमनाथ के समय में अर्हत धर्म से प्रचलित था। श्रमण संस्कृति के इतिहास में इस प्रकार नाम का परिवर्तन होने पर भी धर्म की संस्कृति, संस्कृति का मूल और सिद्धांत में तनिक मात्र भी परिवर्तन नहीं हुआ। पूर्वकाल में जो सिद्धांत थे वो सिद्धांत आज भी विद्यमान हैं। सत्य का निर्बंधरूप प्रकट करने वाली हरेक महान कृतिओं के सामने संप्रदायवादी समाज पंख हिलाता हुआ अनेक प्रकार का www.jainelibrary.org

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